पीड़ा के इस दौर का यह सबसे भारी दिनों में से एक रहा। विधवा हो चुकी मां को दरवाजे पर एक टक देखते हुए गाड़ी आगे बढ़ी।
जिसने भी ये सब लिखा होगा कितना निर्दयी होगा और कैसे इन रेखाओं को खींचा होगा जहां ऐसे-ऐसे दुख हों कि बस आदमी मन ही मन प्रार्थना करे गायब हो जाने की।
पापाजी का जाना मेरे जिंदगी का वह सबसे दर्दनाक पन्ना रहेगा जो मैं कभी भी नहीं भूल पाऊंगा।
१४ नवंबर को उनकी दुर्घटना के बाद मैं पंद्रह को फ्लाईट से बागडोगरा आया। वहां से पूर्णिया के लिए दो अलग-अलग बसें ली। पूरा रास्ता मैं तमाम आशंकाओं से घिरा रहा। पांच घंटे में जब प्रभात कालोनी पहुंचा तो सबसे पहले उस पोखर पर नजर पड़ी जहां यही कोई पंद्रह दिन पहले मैंने मां-पापा जी के सामने छठ मनाया था। कितना खुश था मैं अंदर से कि मेरे और भाग्य के मां-पापा एक साथ हमलोगों को छठ करते देख रहे हैं।
अगले दिन २९ अक्टूबर को हमलोग निबंधन विभाग गये और वहां पापाजी ने मेरे मैरेज सर्टिफिकेट पर दस्तखत किए। फिर अगले दिन पापाजी को रोकने का प्रयास विफल रहा। पापाजी बहुत तनाव में थे जब उन्हें मैंने कहा था कि बेगूसराय से कार वाले को आने के लिए बोलने। आखिरकार भाग्य ने उस दिन छुट्टी मैनैज की और हम दोनों पापाजी -मां को बेगूसराय पहुंचा कर आए। तब मुझे इसका अंदेशा नहीं था कि मैं पापाजी को आखिरी बार स्वस्थ देख रहा था।
मुझे लगा था पहले की तरह पापाजी इस बार भी मौत को चकमा दे देंगे लेकिन उनके लिए अस्सी साल की उम्र ही मुकर्रर की गई थी शायद! आखिरी दिनों में वह बहुत कष्ट में रहे। उनका इलाज सदर अस्पताल बेगूसराय से लेकर पटना के पीएमसीएच, आईजीआईएमएस होते हुए पूर्णिया के अहम अस्पताल में हुआ। इस बीच कई बार यह संदेह होता था कि वह रिकवर कर लेंगे लेकिन वह उम्मीद टूट जाती थी। वेंटीलेटर से जब उन्हें निकाला गया था पूर्णिया में तो लगा था वह बच जाएंगे। १२ नवंबर की रात का अंधेरा हम-सब की जिंदगी में अंधेरा भर गया।
अगर मेरे पास बहुत सारे रुपये होते या फिर चार-पांच लाख भी होते तो मैं उसी रात उनको मेदांता ले जाने कहता जिस रात उन्हें एम्स ने लेने से मना कर दिया और उन्हें मजबूरी में पीएमसीएच ले जाना पड़ा। पीएमसीएच विवशता में हुई बहुत बड़ी गलती थी लेकिन वह एक ऐसी ग़लती थी जिसे टाला नहीं जा सकता था। मैंने अपना कांटैक्ट यूज करके आईजीआईएमएस में भर्ती तो करवा दिया लेकिन...
मन दुविधाग्रस्त है। उनको फर्स्ट एसी में सफर करवाना चाहता था। चाहता था उनको बद्रीनाथ ले जाने के लिए और बहुत इच्छा थी कि उनके साथ बैठकर घंटों बातें करूं। ऐसा लगता है अगर वह एक साल और रहते तो ये तीनों चीजें हो जाती लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जो आदमी इतना धार्मिक हो। धर्म की खातिर नालायक बच्चे को भी पालता हो और पोते-पोती को भी। जिसने असह्य दूख देखा हो और ईश्वर पर भरोसा रखता हो, उसके साथ भी इतनी क्रूरता की गई! आजीवन पापाजी संघर्ष में रहे, आर्थिक बदहाली में रहे, कर्ज लेकर जिम्मेदारियां निभाते रहे और अपने लिए उन्होंने कुछ भी नहीं रखा।
मां पहले जाए उनके आंखों के सामने ये उनकी इच्छा थी जो पूरी नहीं हुई। जाने और कितनी अधूरी इच्छाएं होंगी। हालांकि जनकपुर और अयोध्या जाने की उनकी इच्छा पूरी हुई। माध्यम मैं बना। इसके अलावा उनको स्कूटी देना, हवाई जहाज पर घुमाना, मुंबई घुमाना, द्वारका, मथुरा, आगरा, काशी विश्वनाथ, पशुपतिनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, लिंगराज, जयमंगला गढ़, हरिहरनाथ, बखरी दुर्गा स्थान जैसी जगहों पर उनके साथ जाकर मैंने थोड़ा-बहुत सुकून पाया। हार्दिक-सिम्मी के कारण जो जंजीर उनके पैरों में पड़ीं उसकी वजह से वह कहीं जा न सके। जब जंजीर खुली तब तक शरीर और बूढ़ा हो गया था।
पापाजी, आपको मैं बहुत याद करता हूं।
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