Saturday, July 12, 2025

 कुम्बय्या से अखबार लेना छोड़े महीनों हो गये। मॉर्निंग वाक के लिए सीढ़ियों से उतरते-चढते वह कई बार टकराता तो अभिवादन हो जाता लेकिन बात नहीं हो पाती। हम दोनों हड़बड़ाहट में होते थे।

आज वह अखबार बिल्डिंग में देकर उतरा तो था लेकिन मूसलाधार बारिश की वजह से पार्किंग में ठहरा था। चेहरे पर सन्नाटा, अस्त-व्यस्त शर्ट की आस्तीन और नीचे कफ से झांकती हुई मुरझाई सी तलहथी। इतने सालों में यह पहली बार था कि हम दोनों फुरसत में थे।

"आठ तक भी हो सकता है क्या", जिस तरह ग्रेंडर में सरसों डालकर सीधे चार पर घुमाया जाता है वैसे ही मेरा यह सवाल था। क्यूंकि एक, दो, तीन वाला क्रम कई बार हो चुका था। ऐसा कई बार पहले हुआ था कि मैं उसे फोन करता और कहता साढ़े सात हो गये...और कितना समय लगेगा...अरे आज तो समय से देते...! 

हड़बड़ाहट मेरे अंदर के कई अवगुणों में से एक है। मुझे याद है एक बार कुम्बय्या जब नहीं आ पाया था और मैं उसको फोन करता रहा तो उसने कहा, "आप स्टेशन पहुंचो, मैं वहां आकर आपको दे देगा". वह लोकल स्टेशन आया था अपने स्पलैंडर से और वहां आकर अखबार दिया और वापस भागा। गाड़ी उसने बंद नहीं की थी।

"सर, लड़का नहीं है...तीन हजार से कम में कोई मानता नहीं है...पहले इतने कस्टमर भी नहीं हैं...लड़का को रखना पड़वड़ता नहीं है... मैं यह धंधा छोड़ना चाह रहा था लेकिन कोरोना में इसी का खाया हूं...जो लोग दूसरा धंधा कर रहे थे वह गांव चले गए लेकिन इस धंधे ने परिवार पाला उस समय...जैसे मैं अपने मां-बाप को नहीं भूल सकता वैसे अखबार का धंधा भी नहीं छोड़ सकता...! उसकी बात बिना कोमा, पूर्ण विराम के बढ़ी जा रही थी...दूध का धंधा भी शुरू किया है लेकिन अखबार खुद ही सभी बिल्डिंग में देता हूं...

जैसे आठ-दस साल के विद्यार्थी जीवन में परीक्षा परिणाम के बाद आई कुछ प्रतिक्रियाएं जीवनभर याद रह जाती है वैसे ही कुम्बय्या की आपबीती में से "कोरोना में इसी अखबार ने संभाला, इसको नहीं छोड़ेंगे कभी" वाला हिस्सा बार-बार रिवाइंड होने लगा। मैं सून्न पड़ गया! इतनी कृतज्ञता का भाव रखने वाला एक पेपरवाला लड़का मेरे सामने खड़ा है! 

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