गजल जो दर्द कम करते हैं
जगजीत सिंह और गुलाम अली के उस दौर को याद करना बहुत सुहाना-सा लगता है।
पुलिस लाइन के पास पड़े खाली खेत में घर से निकले से हौसला करके लौट आए खुदा-खुदा करके, जिंदगी तो कभी नहीं आई मौत आई जरा-जरा करके जैसे गजल सुनकर एक तरह का आत्मविश्वास आता था। आईआईएमसी की पहली असफलता के बाद जो हताशा हुई थी, उससे उबरने में गजल की बहुत बड़ी भूमिका थी। बैचलर जिंदगी की भी चुनौतियां इन गजलों से पार हो पाई थी।
आज एक गजल सुनते हुए दो पंक्तियों पर ध्यान गया। रेखाओं का खेल है मुकद्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो...।
थोड़ी देर के लिए रूका और गजल खत्म होने के बाद फिर से इसे दुहराया मतलब रिवाइंड किया। ये दो पंक्ति छू गई। शनि की महादशा और राहू का अत्यंत प्रभावशाली होना-जो बीत रहा है वह विकट है।
रेखाओं का खेल है मुकद्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो...
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