Wednesday, April 19, 2023

हीनबोध

                                            

                                              पत्रकारिता से निर्जीवता तक!

सब कुछ फालतू बहुत तेजी से रहा है लेकिन कई बार लगता है कि कोई रह-रहकर आवाज देकर रोकना चाहता है। जैसे कि कोई कह रहा हूं कि इतनी तेज से भागे जा रहे हो बाद में कौन सा तुम पलट के वापस आओगे। 

सरसों की घटना रह रह कर ध्यान में आती है और मन अपराध बोध से भर जाता है। शनिवार को जब खारघर के सेंट्रल पार्क ग्राउंड में गया था तभी एक बार सोचा था कि बिना पंडाल के इतनी गर्मी को लोग भला कैसे झेल पाएंगे। गृह मंत्री की रैली में जितने लोगों के लिए जगह बनाई गई थी उतनी बड़ी रैली मुझे याद नहीं कि मैंने आखरी बार कब देखा था। जब शनिवार की देर रात दफ्तर के एक अधिकारी का फोन आया और उन्होंने बताया कि गृह मंत्री के कार्यक्रम को थोड़ा पहले कर दिया गया है तब लगा की हो ना हो यह गर्मी से लोगों को बचाने के लिए ही किया गया होगा। 

रविवार की सुबह जब कार्यक्रम वाली जगह पर पहुंचा तो बसों का काफिला देखकर ताज्जुब नहीं हुआ क्योंकि रैलियों में ऐसे दृश्य पहले अनगिनत बार देख चुका हूं। उनमें और इनमें कोई फर्क नहीं था सिवाय इसके कि मुझे और मेरी गाड़ी को बेरोकटोक कार्यक्रम स्थल तक जाने दिया गया। गाड़ी के आगे लगा भारत सरकार का वोट और मेरा हाव भाव शायद ऐसा था की व्यवस्था संभाल रहे हैं सेवकों ने मुझे बेवजह परेशान नहीं किया था।

गर्मी की तपिश नौ बजने से पहले ही महसूस की जाने लगी थी और मैंने तय कर लिया था कि मैं डीएसएनजी में ही बैठूंगा जहां एसी चल रहा था। करीब 1:30 2 घंटा गाड़ी में बैठने के बाद मुझे ऐसा लगा कि गाड़ी का एसी काम नहीं कर रहा है। इंजीनियर को बताया तो उसने हंसते हुए कहा कि सर बाहर गर्मी इतनी तेज हो गई है की ऐसी का असर कम हो रहा है। गाड़ी के अंदर बैठे मुझे गृह मंत्री के सभा का पूरा विजुअल दिखाई दे रहा था स्क्रीन पर और मैं इस इंतजार में था कि कब अप्पासाहेब धर्माधिकारी का आखरी भाषण समाप्त हो और लोगों को इस गर्मी से निजात मिले। बाहर हाल उनका भाषण इतना लंबा खींच गया था कि मेरा धैर्य जवाब दे दिया और मैं डीएसएनजी से निकल कर सीधा अपने ड्राइवर को फोन लगाया और चलकर अपनी गाड़ी तक पहुंचा। इस दौरान जो दृश्य दिखे वह विचलित कर देने वाले थ। कम से कम 4 एंबुलेंस को मैंने तेजी से कार्यक्रम स्थल से जाते और आते देखा था। यह देखकर सुकून था की कार्यक्रम आयोजकों के द्वारा एंबुलेंस का प्रबंध पहले ही किया जा चुका था लेकिन मन में एक तरह की घबराहट भी थी कि कहीं कोई अनहोनी ना हुई हो। बरहाल कार्यक्रम स्थल से लौटकर रात करीब 11:30 बजे सो गया।

सुबह पहला फोन दफ्तर का था। थकान होने के कारण फोन बजने दिया और फोन का कोई जवाब नहीं। काफी देर के बाद फ्रेश हो जाने के उपरांत जब दफ्तर को फोन किया तो जो जानकारी मिली उसने सन्न दिया। रवि जानना चाह रहा था की गर्मी की चपेट में आकर कितने लोगों की मौत हो गई है। उसने सीधे-सीधे आंकड़े की अद्यतन स्थिति मांगी। ऐसा आमतौर पर किसी इमारत के ढह जाने या किसी इमारत में आग लग जाने के दौरान होता है जब हम वितरकों के आंकड़ों पर पूरी खबर को केंद्रित किए रहते हैं। ‌ आनन-फानन में इंटरनेट से जुड़ा तो मालूम चला कि कम से कम 11 लोगों की मौत अब तक हो चुकी है। ‌ परेशान करने वाली बात यह भी थी कि इसकी जानकारी रात में ही ग्रुप पर आ गई थी लेकिन मैं देर रात उसे देख नहीं पाया था। ‌ सरकार द्वारा 55 लाख के मुआवजे की भी घोषणा की गई थी और बाद में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का एक दूषित दौर भी शुरू हो चुका था।

समय अपनी गति से बढ़ता गया फिर अगले दिन मे दूसरी जगह रहा फिर उसके दिन दूसरी जगह रहा लेकिन मन में यह बात का छुट्टी रही कि काश शनिवार को मैं प्रकाशित कर देता तो शायद मुझे यह मलाल नहीं होता कि मैंने पत्रकारिता नहीं की। लेकिन उस्मानाबाद में जो किसानों की आत्महत्या से जुड़ी मेरी स्टोरी के साथ हुआ था उसके बाद मैं जन सरोकार से जुड़े मुद्दों पर ऐसी कोई स्टोरी करने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाया या यूं कहें कि अपने अंदर की पत्रकारिता को मैंने दफना दी।

इस कुंठा को लिए मैं किसके पास जाऊं और क्या कहूं!

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