Sunday, February 6, 2022

पश्चाताप

                                 उम्र की सीख

गन्नू खाने में शुरू से आनाकानी करता रहा है। उसको सही से खाना खिला देना एक जंग जीत लेने जैसा अनुभव देता है। खाते-खाते बीच में रुक जाना, चम्मच हाथ से हटा देना, मुंह फेर लेना, खाना गिरा देना वगैरह के कारण उसको खिलाने के लिए असीम धैर्य की जरू

पिछले दिनों उसको दाल भात खिलाते हुए अचानक मन तीन दशक पहले चला गया। मम्मी का आधा रोटी बोलकर करीब-करीब पूरा रोटी थाली में रख देना, एक मुट्ठी भात के नाम पर हाथ में जितना आ सका उतना थाली में डाल देना, टिफिन में खाना इस तरह भरना कि ढक्कन का बमुश्किल बंद हो पाना और बेगूसराय से दिल्ली आते वक्त चावल दाल समेत नमक चीनी तक अलग-अलग पॉलिथीन में डालकर बैग को कस देना! मां को लेकर हमेशा मन में यही रहा था की उसे यह सब करने का ढंग नहीं है। मना करने पर बार-बार जिद करना बंद कर देता था। कई बार तो इसी डर से खाना नहीं बोला की मूड ना खराब हो जाए। मम्मी कभी नहीं बदली और उसका खाना परोसने का तरीका भी कभी नहीं बदला। अलबत्ता मैं बदल गया!

गन्नू को खिलाते वक्त मैं वैसा नहीं रहता हूं जैसा मैं हूं। इसी तरह तन्वी को खिलाते वक्त लगता है कि कितना ज्यादा उसे खिला दूं। यह समझते हुए भी कि दोनों बच्चों का पेट भर गया है कोशिश करता हूं कि एक दो चम्मच और खा ले। लगता है कि फिर बच्चे कब खाएंगे!

इसे ईश्वर की ही कृपा मानता हूं कि मां अभी मेरे साथ है। कम से कम मैं उन्हें बतला सकता हूं कि वह कभी गलत नहीं थी मैं गलत था। ढंग उसका हमेशा सही था मेरी समझ उस ढंग को समझने के लिए परिपक्व को नहीं थी।

इसी तरह की कई घटनाएं पापा जी पर भी हूबहू लागू होती है। मां और पापा साथ में हों तो आदमी गरीब नहीं रहता!

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