अंतर्मन
बीता साल इंतजार का साल रहा कुल मिलाकर। ज्यादा वक्त इस सोच में कटा कि कब वह वसंत आए और नई हवा चले जो दशकों से नहीं चली।
इंतजार सबकुछ ठीक हो जाने का! इंतजार नए किसी दौर के आहट का जो अबतक के सभी दौर से अलग हो और जहां एक सुकूनदायक ठहराव हो हर तरह की विवशता से परे!
पीछे घुमकर बीत चुके सालों के आगमन का याद करते हुए जहां मन सबसे ज्यादा देर ठहरना चाहता है वह था 2016 का नया साल। अब भी ठीक-ठीक याद है कि फेसबुक पर एक पोस्ट किया था कि इक्कीसवीं सदी को सोलहवां साल मुबारक हो। अनायास ही यह पंक्ति दिमाग में आई थी जिसे पोस्ट करने के बाद लगा था कि कुछ अच्छा पोस्ट किया। बाद में उस पोस्ट को कुछ लोगों ने शेयर भी किया था। बहरहाल जो यादगार बना वह था 2015 से 2016 के बीच के वे चार-पांच दिन।
अद्भुत से थे वे चार-पांच दिन जिन्हें बाद में न ठीक से याद ही कर पाया और न भूल ही सका। याद करना इसलिए मुश्किल हो गया कि उन चार-पांच दिनों में जो घटनाक्रम हुआ था वह व्यापक होते-होते इतना घनघोर हो गया कि उसे याद करने का मतलब गहरे में जाना था। अभी भी वह एक भूलभूलैया की तरफ ले जाता है, जहां का न ओर है न छोर।
पिछले दिनों दफ्तर में किसी बात पर निदेशक ने उसकी याद दिलाते हुए तंज कसा कि उन्हें अब भी वे दिन याद हैं। निदेशक तक बाद में यह बात पहुंच चुकी थी कि गोवा में जो लड़का मुंबई से गया है उसका कमरा सुबह से शाम तक बंद रहता है और वह सिर्फ खाने के लिए बाहर आता है। गोवा में दिसंबर के अंतिम सप्ताह में ऐसे लोग किसी को मिलें तो बात फैलनी स्वाभाविक भी है।
गोवा के उस वीरान पड़े गेस्ट हाऊस में स्ट्रीट लाईट की रोशनी आ रही थी। कमरे के अंदर की सभी लाइट्स ऑफ थी। रोशनी की आवाज कई बार ज्यादा डरावनी और असहज करने वाली होती है। अंधेरे की खामोशी में मन अंदर ही अंदर चहलकदमी कर रहा था। लॉ की पढ़ाई, घर, पिछली कुछ घटनाएं, रुपये-पैसे-बचत और इनसब से अलग एक साथी-शादी वगैरह!
दो दिन का ऑफिसियल टूर था जिसे नये साल को देखते हुए बढ़ाकर पांच दिन कर दिया गया था। लॉ की किताबें बिस्तर पर बिखरी हुई थी और पिछले दरवाजे को आधा खोलकर कुर्सी लगाकर मैं वहां शाम को ढलते हुए देख रहा था। लोगों की बहुत ज्यादा आवाजाही वहां नहीं होती थी लेकिन रह रहकर थोड़ी गतिविधि दिख रही थी।
ऐसा कई बार होता है कि अंदर ही अंदर खुद से उलझ रहा आदमी इतना खिन्न हो चुका होता है कि उसे बाहरी दुनिया काटने को दौड़ती है। वह चुप-सा दबे पांव हर जगह से निकलता रहता चाहता है।
हैप्पी न्यू ईयर के मैसेज से वाट्सएप भरे पड़े थे।
इस बीच एक मैसेज देखकर आंख में चमक आई। मैसेज नंबर से था लेकिन उस नंबर के कुछ डिजिट याद थे। ऐसा लगा कि उस मैसेज का ही इंतजार हो रहा था। खैर, जो चमक थी वह थोड़ी देर बरकरार रही और फिर ढलती शाम की तरह वह चमक भी ढलती चली गई।
खालीपन के उस दौर में हर किसी में एक संभावना दिखती थी। संभावना साथ की। संभावना दूर तक साथ चलने की। संभावना उन लांछनों को साझा करने की जो अपनी झोली में समय के साथ गिरते चले आए थे और जिनसे निजात पाने की कई असफल कोशिशें बीते सालों में हो चुकी थी। संभावना संतुष्टि की।
आगे कुछ महीनों में वह सारी संभावनाएं जिसका अंकुरन उस साल उस रोज हुआ था, बामुश्किल तीन-चार महीनों में वैसे जमींदोज हुई जैसे गेंदे के नए हरे-हरे पौधे के ऊपर से बालू लदी कोई ट्रक गुजर जाए।
------------
उस रात का गोवा...
No comments:
Post a Comment