Monday, October 16, 2017

अनुराग की याद में...


                                        कुछ पुराने पन्नों की कतरनें                                                   

"मुझे चांद चाहिए" पहली हिंदी उपन्यास थी जिसे उतना लीन होकर पढा था जितना कि "अनुराग" को पढ़ा। ऐसा कई बार हुआ है कि दुनियादारी के किसी घने असमंजस में पड़ा हूं और अनंत छोड़ तक कोई नहीं है इसी बीच कोई साहित्य आकर सहारा दे जाये! अनुराग ऐसा ही सहारा दे गया। 

2012 के किसी महीने का कोई दिन था और दिल्ली में वह एक आम दिन की तरह ही बीत रहा था। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा खबरों का संपादन कर रहा था। दिन के करीब ग्यारह बज रहे थे और अखबार छपने के लिए करीब-करीब तैयार था। 

सात और नौ पृष्ठ की अंतिम प्रूफ रीडिंग की और कुछ संपादन करके ऑपरेटर को उसे आगरा भेजने को कह दिया। डीएलए का मुख्य संस्करण आगरा से ही प्रकाशित होता था।

सबलोग चाय पीने के लिए बाहर निकले और मैं भी कंप्यूटर शट टाऊन करने लगा। फोन बजा। लगा आगरा से होगा!

हैलो, हमलोगों का एक कार्यक्रम है हम आपको उसमें बुलाना चाहते हैं (महिला की आवाज थी)
क्या कार्यक्रम है...आपने मेल किया है क्या...
नहीं आप अपना मेल आईडी दे दीजिए...दहेज कानून के दुरूपयोग के खिलाफ...!


                डीएलए अखबार का नोएडी स्थित दफ्तर (तस्वीर : 2012)
किसी महिला का दहेज कानून के खिलाफ कोई कार्यक्रम करने की बात ही चौंकाने वाली थी!  मैंने क्रॉस चैक किया और फिर से पुष्टि की कि सच में वह महिला दहेज पीड़ित नहीं बल्कि दहेज कानून के दुरुपयोग के खिलाफ कोई कार्यक्रम के बारे में बता रहीं थीं। उन्हें अपना ईमेल आईडी दे दिया और बाहर चाय के शौकीन सहकर्मियों को कंपनी देने आ गया। 

जबतक बाहर रहा दिमाग में यह बात घुमती रही कि एक महिला दहेज कानून के दुरूपयोग के लिए कार्यक्रम कर रही है। उत्सुकता बढ़ी तो एक रिपोर्टर को कह दिया कि वह इस खबर को ट्रेक करे! बाद में क्या हुआ उस खबर का याद नहीं लेकिन जो याद रहा वह था उस महिला का नाम। ज्योति तिवारी। वह उनसे मेरी पहली बातचीत थी!

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2012 एक दर्दनाक साल रहा था। 29 नवंबर 2012 को आंधी आई और 5 दिसंबर तक चली। वह एक ऐसी आंधी थी जो अपेक्षित होने के बावजूद उसके लिए पूरी तैयारी नहीं थी। इसकी वजह शायद दिल्ली का वह स्ट्रगल था जो कुछ सोचने के लिए वक्त ही कहां देता था! 

खैर ज्योति तिवारी का नाम ध्यान से गया नहीं और मैंने उन्हें फेसबुक पर खोजा और उनसे जुड़ा। आखिर क्या था जो मुझे ज्योति तिवारी की बातों की तरफ खींच रहा था यह एक लंबी कहानी थी।

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महिलाओं को लेकर मन में द्वंद्व का पहला बीज तब पनपा जब बरखा दत्त ने एक महिला सहकर्मी की मदद से मेरे खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज करवाने की असफल कोशिश की। यह पहली बार था जब मैंने नजदीक से देखा कि किस तरह लड़की की मदद लेकर किसी को फंसाया या परेशान किया जा सकता है और इस घटना के बाद महिला ही पीड़ित होती है की सोच निर्णायक रूप से बदल गई।

2016 दूसरा ऐसा अनुभव लेकर आया जिसने महिलाओं को लेकर मेरी धारणा में अजीबोगरीब बदलाव कर दिये। 

"आपको इस बात का गुस्सा नहीं है कि आपने सेक्स क्यूं नहीं किया बल्कि आपको यह गुस्सा है कि मैं लड़की होते हुए अपने मन से सेक्स कैसे कर ली!"

जीवन में जो कुछ कहीसुनी याद रह जाती है वैसी ही एक बात यह थी जो देर तक याद रही। बाद में सतत प्रवाह में बहती गंदगी की तरह यह बात एक किनारे में जा लगी और पानी का प्रवाह सतत चलता रहा। प्रवाह को बनाए रखने के लिए मेरी पत्नी भाग्य कहीं से अतिरिक्त ऊर्जा लेकर आई थी शायद! 

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अनुराग पढ़कर ऐसा लगा कि किसी ने मेरे बारे में लिख दिया हो। अनुराग के अंतिम कुछ पृष्ठ पढ़ते हुए हिम्मत टूट गई और भरी आंखों से दीदी को फोन लगा दिया। उस दीदी को जिसने मुझे अनुराग होने से बचाया था और जिसने कहा था कि तुम अगर खुद को बांध कर रखे हुए हो तो तुम्हें इसपर फक्र होना चाहिए न कि किसी लड़की के कुछ कह देने से तुम्हें इस तरह टूटना चाहिए!


अनुराग सिर्फ उस लड़के की आपबीती नहीं है जो  किसी लड़की के चक्कर में फंसकर सबकुछ बर्बाद कर लेता है, बल्कि अनुराग लड़कों की उस प्रजाति की कहानी है जो बेवजह ही समाज में संदिग्ध हो चुका है। खुद को लेकर ही हीन हो जाने वाले लड़कों के लिए अनुराग काफी कुछ छोड़ गया है।

जैसा कि अनुराग की मौत के बाद एक पत्रकार कहता है कि शायद वह और उसके दोस्त शराब पीकर गाड़ी चला रहे होंगे, यह जतलाता है कि इस प्रजाति पर कितना संदेह माहौल के कारण बना है! हालांकि उस पत्रकार को जब त्वरित जवाब मिलता है कि अनुराग की गाड़ी में रखे शराब की बोतल का सील भी नहीं खुला है, तो वह पत्रकार बेशर्मी से खिसक लेता है।

ज्योति तिवारी ने जिस तरीके से सपाट होकर अनुराग को लिखा है वह सराहनीय है। आसान शब्दों का इस्तेमाल, घटनाओं के सजीव चित्रण के लिए वाक्यों का तालमेल, बेलागलपेट चीजों को उसी तरह रखना और कम से कम शब्दों में सभी बातें कह देना यह कुछ ऐसी चीजें हैं जो अनुराग को बहुत ही खास बनाती है।

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मध्यवर्गीय परिवार और विशेषकर उत्तरी भारत का मध्यवर्गीय परिवार सामाजिक तानेबाने में इस तरह बंधा होता है कि उसपर न केवल अघोषित बंदिशें लगी होती है बल्कि उसे रोजाना की जिंदगी में भी अतिरिक्त सतर्कता बरतनी होती है। 

उदाहरण के लिए अनुराग अपनी दीदी ज्योति तिवारी से सबकुछ साझा करने के बावजूद उस लड़की से हुई अपनी बातों के उस हिस्से को साझा नहीं कर पाता है जो कि उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण था। 

यह मध्यवर्ग की मर्यादा है जिसे लाज, शर्म, अनुशासन वगैरह के नाम से भी संदर्भित किया जाता है। अनुराग अगर अपनी बहन को उस लड़की के अतीत के बारे में बता देता तो इसकी गुंजाइश थी कि सिविल सेवा की तैयारी करने वाली उसकी तेज तर्रार बहन उसे उस लड़की के भावनात्मक जाल में फंसने से रोक लेती! अगर नहीं भी रोक पाती तो कम से कम जिस अनुपात में नुकसान हुआ उस अनुपात में उतनी क्षति नहीं होती!

लड़की : "मैं तुमको ब्रॉड माइंडेड समझती थी अनुराग।"

मैं (अनुराग) : "मैं नहीं हूं ब्रॉड माइंडेड. खतम करो बकवास"
                                                                सौजन्य : अनुराग

अनुराग जिस लोकेशन पर फंसा है वहां से उसका निकलना इसलिए मुश्किल था क्योंकि बतौर लड़का उसपर यह मनोवैज्ञानिक दबाव था कि वह साबित करे कि वह ब्रॉड माइंडेड है! यह अलग बात है कि ब्रॉड माइंडेड होने के लिए जो करना पड़ता है वह उसने न कभी अपने परिवार में देखा, न आसपास के समाज में। वह इसलिए ब्रॉड माइंडेड नहीं था क्योंकि वह शराब नहीं पीता था, गर्लफ्रैंड नहीं पालता था, फिजूलखर्ची नहीं करता था और घरवालों की बात मानता था! 

अनुराग के मन में एक टीस थी जो न निकलती थी और न ही रूकती थी। 

टीस इस बात की भी होगी कि जब वह लड़की वालों से कहता है कि वह शादी में कोई शान नहीं चाहता है और साधारण शादी चाहता है तो लड़की वालों ने ही पैसा फेंकने का प्रलाप किया और फिर बाद में उसी पर दहेज का मामला दर्ज करवा दिया। 

गलत काम से अर्जित किये रुपयों का मालिक कैसा होगा इतना सोचने की क्षमता होने के बावजूद अनुराग अगर यह सब देखता रह गया तो यह उसकी नादानी थी और इसकी कीमत उसने बाद में चुका दी। वह लड़की शादी से पहले ही अनुराग के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है। 

कमाल है ब्रॉड माइंडेड लड़की के इस अप्रत्याशित से कदम पर भी अनुराग सचेत नहीं होता है। 

पीरियड्स एक ऐसी चीज है जिसका लड़कियां अपने हिसाब से कई बार उपयोग करती हैं और यह कोई रहस्य नहीं है। जो लोग दफ्तर में काम करते हैं, उन्हें मालूम होगा। फेमिनिस्ट विचार वाली उस लड़की ने भी पीरियड्स का बहाना बनाकर अनुराग को खुद से दूर रखा और अचानक एक दिन बताया कि वह मां बनने वाली है। अनुराग को उसने यह यकीन भी दिला दिया कि बच्चा उसी का है। 

फेमिनिज्म के सहारे कितना बड़ा खेल कैसे खेला जाता है यह समझने के लिए अनुराग से अच्छी कोई किताब हो ही नहीं सकती।

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2003 में पहली बार पुलिस लोहियानगर मुहल्ले में आई थी। मध्यमवर्गीय उस परिवार के करीब सभी सदस्यों पर अपहरण का एक मामला दर्ज हुआ था। पुलिस आई तो आसपास के लोग घर के सामने जुटे। तमाशा बना। कहानियां बनीं और पसरीं। पुलिस डराधमका कर चली गई। 

मामला आगे बढ़ा। मोर्चेबंदी शुरू हुई और साहस के साथ लड़ने का निर्णय लिया गया और लड़ाई तबतक चली जबतक कि 2009 में इलाहाबाद में एक होटल में अपहरण का केस दर्ज करवाने वाले उस आदमी की बेटी की लाश पंखे में टंगी हुई न मिल गई।

वह घर अनुराग का नहीं था और अपहरण का केस दर्ज करवाने वाले उस आदमी ने गलती यही की कि उसने उस घर को किसी अनुराग का घर समझ लिया।

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और अंत में...


"SISTERS ARE JOINED HEART TO HEART"








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