यूं चक्कर काटना
इस तेवर का क्या होना है खुदा जाने लेकिन तेवर यही रहा तो खतरनाक हो जाएगा इस अनंत तक पसरे दुनिया के लिए. अंदर ही अंदर जो दबी हुई चीख रही है दशक से उसका रिसाव अगर किसी भी तरफ से शुरू हुआ तो जो विस्फोट होगा उसमें कुछ भी नहीं बचेगा.
निर्दोष भावनाएं राख हो जाएंगी और मनहूसियत का एक खालिस दौर चलना शुरू होगा , जो न पता कहां जाकर खत्म हो.

रास्ता वही रहता है बस तय करने के तरीके में फर्क रहता है. दंड मारकर भी लोगबाग मंदिर जाते हैं. आगे की दिशा में लेटकर हाथ से अधिकतम दूरी पर एक लकीर खींचना.
फिर खड़ा होना उस लकीर पर और फिर आगे की ओर लेटना और फिर उसी प्रक्रिया को दुहराना. यह सतत प्रक्रिया तबतक जारी रहती है जबतक कि मंदिर आ न जाए.
इसी तरह एक होता है वृक्ष के चारों ओर आगे बढ़ते हुए चक्कर लगाना और दूसरा होता है पृथ्वी की तरह सूर्य की चक्कर लगाना. पृथ्वी जो सूर्य का चक्कर लगाती है उसमें दिलचस्प य़ह है कि वह खुद चक्कर लगाते हुए सूर्य की चक्कर लगाती है. कभी शाम, कभी रात और कभी सुबह.
बेगूसराय से दिल्ली का चक्कर और दिल्ली से मुंबई का चक्कर और इसके दरम्यान कई चक्कर!
बाकी फिर कभी. सुनो ये जो दादर के पास कपड़ों की दुकानें हैं न उसमें अच्छी-अच्छी साड़ियां हैं.
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