बीता बरस
सबकुछ भर चुका है दिमाग से
लेकर बिस्तर पर पड़े रहने वाले कागजों के ढेर तक.
लैपटॉप ऑन करते ही ध्यान
आता है कि डेस्कटॉप पर सेव तमाम फाइलें अबतक वैसे ही पड़ी हैं, कई आर्टिकल आधे
लिखे हैं और एक नोवेल जो मैं पिछले एक साल से लिखने की कोशिश कर रहा हूं वह भी आधी-अधूरी
सेव है.
किचन-वॉशरूम में कुछ काम
करवाना है जिसकी याद तभी आती है जब वहां जाता हूं.
कमरा खोलते ही नजर किताबों
के रेक पर पड़ती है. कई नई किताबें जो फ्लिपकार्ट से ऑर्डर करके पढ़ने के लिए
मंगाई थी, वैसे ही पड़ी हुई है. मेरे साथ गोवा, कोल्हापुर, दिल्ली, बिहार आदि
जगहों पर वे किताबें मेरे साथ घूम चुकी है लेकिन जिस उद्देश्य से उसे खरीदा था वह
अब तक पूरा नहीं हुआ है.
जूता पहनते हुए याद आता है
कि अरे मेरे पास फॉर्मल शू तो है ही नहीं, वुडलैंड पहनकर ही काम चल रहा है. फॉर्मल
शू लेने का प्लान करीब सात महीने से बन रहा है लेकिन अब तक लिया नहीं गया.
बिस्तर पर आते हुए ध्यान
आता है कि दो चादर जो लौंड्री वाले को देना था वह वैसे ही कमरे के एक कोने में रखा
हुआ है कब से.
टेबल पर रखे फ्रंटलाइन,
इंडिया टुडे, ईपीडब्ल्यू सहित तमाम पत्र-पत्रिकाएं मुझसे सवाल करती हैं कि मुझे कब
पढ़ोगे योगेश और मैं चुपचाप उसे एक नजर देखकर रह जाता हूं.
ये कैसा अंतहीन दौर है जो
बस आज-कल-परसों के बीच कटता जा रहा है!
सबकुछ बदल चुका है. रिश्ते
अब कहीं नहीं हैं.
घर के जो लोग हाल-चाल पूछते
थे अब नहीं पूछते. अब काम की बात होती है. इधर से भी उधर से भी.
“कल सुबह पांच बजे उठा दीजिएगा, सात बजे की बुलेटिन में लाइव है”
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“अररिया से मुगलसराय का टिकट उस डेट में बना देना”
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जिंदगी में हमेशा चुनना
पड़ता है. सुबह या शाम, ये या वो, ऐसे या वैसे, इतना या उतना, अब या तब, इसका या
उसका....
शहर छूटा तो दोस्ती भी दम
तोड़ती चली गई. फोन और फेसबुक के वेंटिलेटर पर कुछ दोस्ती अगर बची भी है तो बस बची
ही है, उसमें अब वो असर और गर्मी नहीं रही.
चौकन्ना रहना इतना जरूरी
कभी नहीं था जितना अब है.
वो लड़की हर बात में “हमेशा” बोलती है. अगर किसी ने
उससे एक बार मदद मांगी तो वह बाद में कहेगी कि मैं हमेशा तुम्हारी मदद की हूं. अगर
कोई उसे कहेगा कि आज उसकी तबियत ठीक नहीं है तो वह कहेगी कि हमेशा इसकी तबियत खराब
ही रहती है. अगर किसी ने गलती से अपनी किसी घटना का जिक्र करके थोड़ा अफसोस कर
लिया तो वह कहेगी कि ये हमेशा रोता ही रहता है...
अंदर और बाहर की जिंदगी कई
बार समांतर होते हुए भी समान सी हो जाती है.
अंदर की उलझन बाहर न दिख
जाए इसके लिए बरती गई सारी सतर्कता और सावधानी धरी रह जाती है.
“अरे कल तुम्हारा हेडफोन यहीं छूट गया था...तुम्हारी डायरी यहीं रह गई थी
कल...उस केस का पूरा प्रिंट आउट तो तुम यहीं भूल गये थे कल...अरे आज तुम्हारा शाम
में कवरेज था न!....”
कोर्ट से निकलकर जब दोपहर
में जोर की भूख लगती है तभी याद आता है कि लंच बॉक्स तो कमरे पर ही रह गया...!
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प्रिय तुम,
अब समय गुजर रहा है तो फिर गुजर ही जाने दो. अब आने का कोई फायदा
नहीं. जितना बिगड़ना था उतना बिगड़ चुका है. अब अगर तुम आ भी गई तो बस कहानियां
बचेगी सुनाने को क्योंकि मन का वह हिस्सा दम तोड़ चुका है, जो तुमसे अबतक गुहार
लगाता रहा कि आओ और इन तमाम उलझनों को सुलझाने में मेरी मदद करो. बदले में सबकुछ
ले लो.
अंतर्विरोध और उलझनों में मैं अब भी फंसा हूं लेकिन अब और तब में
अंतर है. तब मेरे पास यह सबकुछ नहीं था जो अब है. अब मेरे पास वो तमाम अच्छी यादें
हैं जो मुझे जिलाती रहेंगी.
पिछले एक साल में मैंने वो तमाम तस्वीरें खिंची हैं और खिंचाई हैं
जिसे देखकर मैं खुद को यकीन दिला सकता हूं कि मैं मरा नहीं हूं.
तुम्हारा आना अब बेमतलब ही होगा क्योंकि तीसरा पहर तो कट गया. अब
बस पूरा दिन कैसे अच्छे से गुजरे इसके लिए मुझे मेहनत करनी है जो मैं कर रहा हूं.
तुम आती तो शायद मुझे उतना अभिनय नहीं करना पड़ता जितना मैंने किया.
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गर्मी एक अच्छा मौसम है. पसीने से भींगे लोग अच्छे लगते हैं. हाथ
घुमा कर बांह से मुंह पोछते लोग. मुंबई में इस मौसम को देखना और भी दिलचस्प है.
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मुंबई पहला प्यार है. 14 फरवरी, 2014 को दिल्ली-मुंबई राजधानी से
ही आया था दिल्ली से मुंबई. वेलेंटाइन डे के रोज. राजधानी की खिड़की में लगे लंबे
शीशे से बाहर की लोकल में चिपके लोगों को देखकर ही प्यार आ गया था मुंबई पर. वह
प्यार अब भी कायम है और आगे भी कायम रहे...बस यही कामना है!
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समय का पौधा:
हम दोनों से समय का एक पौधा
लगाया है. दोनों अनिश्चितताओं से घिरे हैं. ये पौधा बड़ा होकर एक अच्छा समय होगा
और उसका फल हमदोनों को उन बीमारियों से मुक्त कर देगा जिससे हम दोनों ग्रसित हैं.
अनहद सब्र चाहिए इस पौधे को
बड़ा करके परिपक्व बनाने के लिए.
कभी लगता है हो पाएगा. कभी
लगता है नहीं हो पाएगा.
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और आखिर में...
मुंबई में सालभर की कुछ तस्वीरें
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