इंतजार और सही
प्रिय “तुम”,
रोज तुम्हें मिस करता हूं. ऐसे समय में जब हर व्यक्ति दूसरा
लगता है, हर शख्स परेशान लगता है, और हर फॉन कॉल एक
जवाबदेही देकर ही कटता है, मैं दो पल तुम्हें सोचने में खर्च करता रहता हूं.
तुम्हारा आना शायद मुमकिन न हो इन परिस्थितियों में, लेकिन इस
उम्मीद में कि तुम एक दिन आओगी, हर दिन कटता जाता है.
टेबल पर जो कोरे कागज पसरे रहते हैं उन्हें मैं रोज कुछ न कुछ लिखकर
गंदा कर देता हूं. किसी पर किसी न्यूज का इनपुर, किसी पर किसी का मोबाइल नंबर,
किसी पर संक्षिप्त डायरी-शायरी या फिर किसी कागज पर कोई पेंटिंग बैठे-बैठे बनाने
लगता हूं. अगली सुबह जब कुर्सी पर बैठता हूं तो सामने कोई कागज कोरा नहीं रहता
लिखने के लिए और झल्ला जाता हूं. फिर तुम्हारी कल्पना करके सोचता हूं कि तुम होती
तो रोज टेबल पर कुछ कोरे कागज मेरे लिए सहेजकर रख दिया करती ताकि मैं उसे गंदा कर
सकूं.
लिखने की लत पुरानी है. लिख-लिख कर ही तो पूरा दौर काट दिया!
किसी किसी सुबह अनायास ही तुम्हारी कल्पना करके सोचने लगता हूं कि
तुम होती तो याद से मुझे नींद आने के बाद मेरा लैपटॉप बंद कर दिया करती. फिर
तुम्हारे मुंह से निकलने वाले अपेक्षित वाक्य को सोचकर थोड़ा रोमांटिक सा हो जाता
हूं,
“मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं अपना
लैपटॉप सोने से पहले बंद क्यूं नहीं करते”!
तुम्हारी कल्पनाओं
का पूरा आकाश तैयार किया है मैंने. बस इंतजार है कि उस आकाश से कब तुम बादल बनकर
उतरोगी और मुझपर अपना रंग चढ़ा दोगी.
कई बार ऐसा लगता है
कि मैं हार जाऊंगा और मुझे ही तुमतक आना होगा सबकुछ त्यागकर. यह दौर दरअसल “कौन बनेगा करोड़पति” जैसा है! मैं अगर खेलना बंद करूंगा
तो मैंने अबतक जितना जीता है उसका एक हिस्सा ही ले जा पाऊंगा.
तुम्हारा
“मैं”
जिन्दगी के लिये... "इंतजार और सही"
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