बेचैन करती धुन
"अब तो हे तुमसे हर खुशी अपनी...
अभिमान फिल्म के इस गाने के
आगे मैं इतना कमजोर क्यूं होने लगता हूं?
दिन-दर-दिन बढ़ते-बढ़ते
महीने-साल बीत गये लेकिन इस गाने में छिपा वो सबकुछ अब भी वैसा ही क्यूं है जो तब
था, जब रात-दिन का फर्क मिट चुका था.
दीवार न होता तो किससे
सट कर इतना पर्सनल होता!
“तेरे प्यार में बदनाम दूर-दूर हो गये, तेरे साथ हम भी सनम मशहूर हो गये...देखो
कहां ले जाए बेखुदी अपनी...”
ये सबकुछ क्यूं नहीं खत्म
हो जाता!
किस-किस इल्जाम को ढोता
फिरूं ...कितने लोगों को जवाब दूं ...क्या-क्या जवाब दूं और कितना तक दूं! न सवाल खत्म होंगे न जवाब!
सवालों का मुकाबला
करते-करते मिटने लगा हूं, भूलने लगा हूं...कभी छाता कभी कलम कभी पर्स कभी पेन
ड्राइव कभी मोबाइल तो कभी लोकल का प्लेटफॉर्म...यह सिलसिला जारी है और ऐसा लगता है यह सब मेरे साथ ही खत्म होगा!
बस अगर कुछ नहीं भूल पा रहा हूं तो वह है मेरा
अतीत जो भयानक वियावान से निकलती किसी दर्दनाक कराह की आवाज बनकर मेरे आसपास बहने
वाली हवाओं में घुल सा गया है!
पूरी ताकत से मैं चिल्लाकर
यह कहना चाहता हूं कि मैंने हार मान ली है!
हां, मैंने हार मान ली है! मैंने मान लिया है कि मैं
अचानक सामने आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार नहीं हूं. चुनौतियां अप्वाइन्मेंट
लेकर नहीं आती ये मैंने उस नोवेल में पढ़ा था जिसके किरदार के साथ मेरा भावात्मक
रिश्ता है. क्या मेरी चीख सुनकर तुम्हें दया नहीं आती?
क्यूं नहीं उस शाप से मुझे
मुक्त कर देते तुम?
गणित का एक आसान सा सवाल
नहीं सुलझा सकने वाले किसी आदमी के सामने जिंदगी के इतने समीकरण हैं! ये समीकरण भी सूत्रों से ही
हल किये जाते होंगे शायद!
जन्म-जन्मान्तर तक, अनंत के
उस छोर तक और सबकुछ वीरान होने तक मैं अस्तित्व में रहूंगा. भले ही निहत्थे हारे
हुए एकांकी की तरह!
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