सोच का सागर
सागर मिश्रा के आत्महत्या
के कारणों के बारे में सोचना शुरू करता हूं लेकिन बीच में ही दम तोड़ने लगता हूं.
भारतीय जनसंचार संस्थान में हम दोनों साथ पढ़े थे और वह अन्य लड़कों की तरह ही
हममें से एक था. जैसे हमारे सपने थे वैसे ही उसके भी सपने थे. जैसे सबकी शादी होती
है वैसे ही उसकी भी शादी हुई. बाद में पता चला कि लव मैरेज था. लेकिन फिर भी उसने
सुसाइड क्यूं किया यह सोचने के लिए निकलता हूं तो कई कारणों के बीच दिमाग को फंसा
हुआ पाता हूं और फिर सोचना छोड़ कर दूसरी चीज सोचने लगता हूं.
कभी-कभी याद आता है
पांच-सात साल पहले का वो समय जब कुर्सी टेबल पर बैठे सोचते-सोचते घंटों खपा दिया
करता था. गर्मी की रात में छत पे बने सीमेंट की छोटी-छोटी कुर्सी पर बैठकर कितना
कुछ सोच लिया करता था. साइकिल चलाते-चलाते भी दिमाग सोचना जारी रखता था. यहां तक कि
शौचालय में भी भविष्य के सपने बुनना जारी रहता था. लेकिन अब ऐसा लगता है कि सोचने
की एक सीमा सी हो गई है जो बस महसूस की जाती है. इसे शायद मेरे उम्र का और भी कोई
महसूस कर रहा होगा.
सोचते-सोचते थकान महसूस
करने का यह एक नया दौर है. हो सकता है यह कोई बीमारी भी हो लेकिन अगर यह बीमारी है
तो मानवीयता के लिए इससे गंभीर बीमारी अब तक कोई नहीं हुई. क्योंकि जब हम किसी के
बारे में नहीं सोच पा रहे तो संभव है कि सामने वाला भी हमारे बारे में नहीं सोच पा
रहा होगा. ऐसी स्थिति में इसकी पूरी संभावना है कि हम आपस में भ्रमित रहेंगे और
सही-गलत से दूर यह भी नहीं जान पाएंगे कि वर्तमान और भविष्य के बीच की कौन सी सड़क
सही है और कौन सी गलत. बड़ा डरावना लगता है ये सब!
कुछ दिन पहले एक साथी ने
फेसबुक पर लिखा, “खुद से ही जंग है”. आखिर ऐसा यूं ही तो नहीं लिखा होगा उसने. जरूर
कोई न कोई बात होगी हो सकता है वह भी सोच नहीं पा रहा होगा या एक टर्मिनल पर जाकर
दिमाग उसे अकेला छोड़ देता होगा.
फिल्मों या आम जिंदगी में कभी न कभी हम सबने किसी के मुंह से जरूर सुना होगा कि “मेरी जगह रह कर सोचो” या “मेरी जगह कोई होता तो वही करता जो मैंने किया”. ऐसी बातें युवा जोड़ों के बीच अक्सर होती हैं लेकिन फिर भी क्या वो एक दूसरे की जगह रहकर एक दूसरे को समझ पाते होंगे? जिस समाज के नस नस में तनाव घुलता जा रहा है और जहां की हवाएं भी अब लोगों को डराती हैं वहां क्या ऐसा मुमकिन है कि कोई किसी की जगह खुद को रखकर सोच सके? खासकर वह युवा जो अपनी योग्यता का आकलन कर पाने में असमर्थ सा दिखता है और बाहरी दुनिया को देखते-देखते अपना सुधबुध और विवेक खोने लगता है क्या यह सच नहीं है कि वैसे कई युवा आज खुद के बारे में भी नहीं सोच पा रहे?
फिल्मों या आम जिंदगी में कभी न कभी हम सबने किसी के मुंह से जरूर सुना होगा कि “मेरी जगह रह कर सोचो” या “मेरी जगह कोई होता तो वही करता जो मैंने किया”. ऐसी बातें युवा जोड़ों के बीच अक्सर होती हैं लेकिन फिर भी क्या वो एक दूसरे की जगह रहकर एक दूसरे को समझ पाते होंगे? जिस समाज के नस नस में तनाव घुलता जा रहा है और जहां की हवाएं भी अब लोगों को डराती हैं वहां क्या ऐसा मुमकिन है कि कोई किसी की जगह खुद को रखकर सोच सके? खासकर वह युवा जो अपनी योग्यता का आकलन कर पाने में असमर्थ सा दिखता है और बाहरी दुनिया को देखते-देखते अपना सुधबुध और विवेक खोने लगता है क्या यह सच नहीं है कि वैसे कई युवा आज खुद के बारे में भी नहीं सोच पा रहे?
सोचने की सीमा है. मसलन आप
अगर दिल्ली के किसी मेट्रो स्टेशन पर बैठकर सोच रहे हैं तो आपकी वह सीमा अगले
मेट्रो के आने तक है. इसी तरह मुंबई में अगली लोकल के आने तक. दफ्तर में सोच रहे
हैं तो आपकी सीमा अगले फोन कॉल के आने तक है. और बाकी जगह अगर आप सोच रहे हैं तो
आप अपने बारे में सोच ही नहीं रहे आप उस काम के बारे में सोच रहे हैं जो अभी आपको
करना है. उठने के बाद ब्रश, ब्रश के बाद बाथरूम, बाथरूम के बाद कपड़े, कपड़े के
बाद जूते, जूते के बाद पर्स, पर्स के बाद टैक्सी, टैक्सी के बाद लोकल, लोकल के बाद
सीट, सीट के बाद स्टेशन, स्टेशन के बाद टैक्सी, टैक्सी के बाद दफ्तर, दफ्तर के बाद
डिनर, डिनर के बाद आप सोचने लायक रह कहां जाते हैं क्योंकि कल रात के बाद ही शुरू
होने वाला है और रात में सोचने के लिए तबतक इतनी सामग्री दिनभर में दिमाग में जमा
हो चुकी होती है कि नई सोच की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती.
सागर के सुसाइड से मुझे
इतनी तसल्ली है कि उसे कम से कम वैसी जिंदगी से राहत मिल गई होगी जिस जिंदगी ने
उससे सोचने की क्षमता छीन ली होगी.
अक्सर हम कहते और महसूस
करते हैं कि हर चीज की एक सीमा होती है. लेकिन कई बार व्यावहारिक रूप में यह एक
मिथक सा लगता है क्योंकि यह सीमा तय नहीं है उसी तरह जिस तरह सोचने की कोई सीमा
नहीं है. लेकिन सागर की मौत या किंगफिशर के पायलट की पत्नी का आर्थिक संकट से
गुजरकर आत्महत्या कर लेना यह बतलाता है कि सोच की एक सीमा निर्धारित हो चुकी है.
कई लोग उससे आगे नहीं सोच पा रहे. इस सीमा को तोड़ने के लिए किसी बुल्डोजर या
बाहरी ताकत की जरूरत नहीं है बल्कि आदमी को खुद की ही जरूरत है. उस साथी ने सही
लिखा था, “खुद से ही जंग है”.

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