जमीन की छीन-झपट और कहानी किसानी की
आधारभूत ढ़ांचे, गोल्फ कोर्स, फोर्मूला
वन ट्रैक्स और आवासीय निर्माण के नाम पर भारतीय और विदेशी कंपनियां शहरों और
गांवों में जमीन खरीदकर रियल इस्टेट और अपने बाजार को बृहत करने के लिए इसका उपयोग
कर रही है. कई राज्यों में हो रहे इस तरह के अधिग्रहण की प्रक्रिया में पारदर्शिता
का घोर अभाव है और जितने क्षेत्र की जमीन वास्तव में अधिग्रहित की जा रही है,
उसकी जानकारी मीडिया तक नहीं पहुंचने दी जा रही है. यह देश में
खाद्य सुरक्षा और करोड़ों लोगों के जीवनयापन से सीधा जुड़ा हुआ मामला है. भूमि
सुधार और कृषिक संबंधी रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि हो चुकी है. यह सब संयुक्त
प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा 24 मई 2004 को जारी उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के
बावजूद हो रहा है जिसमें कहा गया था कि सरकार एक कानून बनाकर भूमिहीनों को जमीन
देगी और जमीन के व्यवहार में किसी तरह की तब्दीली नहीं की जाएगी.
जमीन लुटेरों को सरकारी संरक्षण
राज्य सरकारों द्वारा कृषि की उपेक्षा की बात अब सार्वजनिक
हो गई है. संप्रग सरकार ने अमेरिका के कूटनीतिक समझौते के नाम पर कृषि क्षेत्र में
प्रयोग करने शुरू किये. इसकी शुरुआत “नोलेज इनिसिएटिव इन एग्रीकल्चर” के नाम से हुई. इसमें अमेरिका की बड़ी बीज कंपनियां मोंसेंटो, आर्चर-डेनियल-मिडलैंड और वालमार्ट जैसे बड़े समूहों को प्रतिनिधित्व दिया
गया वहीं दूसरी तरफ कृषि व्यापारियों की तरफ से फिक्की और सीआईआई जैसे संगठनों को
प्रतिनिधित्व दिया गया. यह अपने आप में बेहद अजीब बात है कि कृषि से जुड़े इस पहल
में किसानों की तरफ से किसी को भी प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया. इसके बाद इन
कार्पोरेट्स ने नीतियों में निर्णायक दखल देना शुरू कर दिया,
जिसका नतीजा यह हुआ कि किसानी खेती धीरे-धीरे हाशिए पर पहुंचती गई और कंपनियों ने
तकनीक के बल पर बाजार के फायदे के लिए एक नई संरचना विकसित कर दी.
केआईए के तहत हुए समझौते को ढ़ाल बनाकर अमेरिकी कंपनियों ने
भारत में होने वाले कृषि शोधों और नीति तैयार करने वाली संस्थाओं को प्रभावित करना
शुरू किया. सरकार इन आभासी सुधारों के आधार पर “एवर ग्रीन रिवोल्यूशन”
की बात कर रही है. इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है कि “भारत-अमेरिका
व्यापार परिषद” भी इसी तरह की क्रांति की बात कह रहा है. यह
परिषद बड़ी बेबाकी से यह भी कह रहा है कि इस क्रांति का आधार कृषि व्यापार होगा और
यह इसी क्षेत्र में हासिल की जाएगी.
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाह के नाम पर सरकार की
औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग (डीआईपीपी) ने 1 अप्रैल,
2011 से कृषि और उससे संबद्ध संवेदनशील क्षेत्रों में भी विदेशी
निवेश को भी प्रभावी कर दिया. बीज के विकास और उससे जुड़ी प्रक्रियाओं में विदेशी
निवेश को और उदार बना दिया गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूरी तरह संतुष्ट करने
के लिए बीज, उत्पादन सामग्री, उत्पादन
तकनीक सहित इससे संबंध रखने वाले सभी क्षेत्रों में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश की स्वीकृति दे दी गई. ऐसे में बीज की कीमतों पर पहले से कमजोर नियंत्रण
रखने वाली सरकार का अब इसपर से नियंत्रण पूरी तरह खत्म हो गया. चाय की खेती में भी
सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दे दी गई है. इससे इस तरह की लघु खेती
के आने वाले समय में घोर संकट ग्रस्त हो जाने और रियल इस्टेट के लिए इन जमीनों के
अधिग्रहण होने का संभावना को बल मिल रहा है. वहीं करोड़ों छोटे किसानों और बड़ी
संख्यां में आदिवासियों के सामने जीवन जीने का संकट पैदा हो गया है.
दुनियाभर के खुदरा व्यापारियों की नजर भारत की कृषि और
डेयरी क्षेत्र पर लगी हुई है और वह इसकी ताक में हैं कि उन्हें इसका मालिकाना हक
मिल जाए ताकि वह इसके उत्पादों का सौदा ऊंची कीमत में आपस में कर सकें. खाद्य एवं
उपभोक्ता मामले के मंत्रालय से ली जा रही जानकारी इस ओर इशारा कर रही है कि किसानों
से सीधे माल खरीदने की बात करके दरअसल घरेलू कृषि क्षेत्र को संगठित खुदरा क्षेत्र
में तब्दील किया जाएगा. इस तरह की पहल के बाद किराना दुकान खोलकर जीविका चलाने
वाले करोड़ों लोगों के सामने के सामने रोजगार के लाले पड़ जाएंगे.
निजी लाभ के लिए भाजपा और कांग्रेस शाषित प्रदेश इस तरह की
व्यवस्था को दो दशक से हवा दे रहे हैं. राजस्थान में किसानों के संसाधनों की लूट
के लिए मोंसेंटो, डूपोंट, बयेर, पेप्सिको,
कारगिल, सब मिलर, लूपिन
सहित कुछ भारतीय कंपनियों को परमिट दे दिया गया है. राजस्थान और गुजरात में
मोंसेंटो के पास गोल्डन रेज और सनशाइन नामक दो बड़े प्रोजेक्ट हैं जो मक्का आधारित
हैं. राज्य सरकारें यहां से भारी दामों में संकर बीज खरीद कर किसानों को देती है.
इसका खर्च राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत वहन किया जाता है.
व्यापार उदारीकरण और मुक्त व्यापार समझौते की
असमानता: भारतीय किसानों के लिए खतरा:
विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर की वार्ता के असफल हो जाने
के बाद संप्रग सरकार ने व्यापार उदारीकरण करने के साथ ही उत्पादों पर संख्यात्मक
प्रतिबंध हटा लिया. सरकार ने यूरोपियन संघ के साथ गोपनीय तरीके से मुक्त व्यापार
समझौता किया. इस तरह भारत फिलहाल 56 देशों के साथ यह समझौता कर चुका है. हाल में
भारत और आसियान के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते के दौरान भारत के अंदर हो रहे
जबर्दस्त प्रतिरोध को सरकार ने दरकिनार कर दिया और कई गंभीर खतरों और जनविरोधों के
बाद भी सरकार इस तरह के समझौतों पर आगे बढ़ती रही. इस दौरान सरकार ने न केवल
संसदीय लोकतंत्र को अप्रासंगिक साबित कर दिया बल्कि दूरगामी दुष्परिणामों को भी
अनदेखा कर दिया.
भारत और यूरोपियन संघ के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते के
तहत भारत ने नब्बे फीसदी उत्पादों पर आयात शुल्क करीब-करीब समाप्त कर दिया, जबकि यूरोप
की सरकारों द्वारा वहां के किसानों को दी जा रही भारी सब्सिडी यथावत बनी हुई है.
यूरोप के किसानों को दोहरी सब्सिडी का लाभ मिलता है. उन किसानों को न केवल राज्यों
से सब्सिडी मिलता है बल्कि 2006 में शुरू की गई साझा कृषि नीति के तहत कुल बजट का
48 फीसदी यानि करीब 49.8 बीलियन यूरो भी उन्हें बतौर मदद दी जाती है. भारतीय किसान,
जो कि ऐसी किसी भी सरकारी सहारे के बिना जीते हैं, उनके लिए यूरोपयन संघ के किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करना असंभव सा है.
भारतीय बाजार में यूरोपीय उत्पाद बड़ी आसानी से भारतीय उस्पादों को रौंद डालेंगे.
संभावना जताई जा रही है कि भारत-यूरोपियन संघ की तर्ज पर ही भारत जल्द ही अमेरिका
के साथ ऐसा ही मुक्त व्यापार समझौता करने जा रहा है जो कि डेयरी के क्षेत्र में
होगा. ऐसा अनुमान है कि भारत के नौ करोड़ डेयरी व्यवसाय से जुड़े किसानों के समक्ष
इस समझौते के बाद विकराल स्थिति पैदा होगी.
मेहनताना और किसानों को अधिक कीमत मिलने का
मिथक:
सरकार लगातार यह दावे कर रही है कि ऐसे समझौतों के बाद
किसानों को उनके उत्पादों की बेहतर कीमत मिलेगी जबकि सच यह है कि इस तरह का दावा
महज एक मिथक है जो सरकार की अति असंवेदनशीलता को दर्शाता है. सरकार इस बात को जोर
देकर कहती है कि बाजार द्वारा सीधे किसानों से उत्पाद खरीदे जाने से किसानों को
मनचाही कीमत मिलेगी और सरकार यह भी जताने की कोशिश करती है कि न्यूनतम समर्थन
मुल्य, किसानों द्वारा उत्पादन में लगी कीमत से बहुत अधिक है. यहां
एक बात गौर करने वाली है कि कृषि उत्पादों की कीमत की जानकारी रखने वाले आयोग (सीएसीपी) को बिल्कुल निष्क्रिय बना दिया गया है और
इसकी स्वतंत्रता छीन ली गई है. बीज की कीमत या इससे जुड़ी किसी भी तरह की जानकारी
के लिए इसे अब आर्थिक और सांख्यिकीय विभाग पर निर्भर रहना पड़ता है. इस तरह
किसानों को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना करते समय वैसे कई पहलुओं को
अनदेखा कर दिया जाता है, जिसकी अनुशंसा स्वामीनाथन आयोग ने
की थी.
खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 2008-09 और 2009-10
में की गई वृद्धि का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद हम देखते हैं कि सरकार ने दस
खरीफ फसलों के कीमतों में एक रुपये का भी इजाफा नहीं किया, महज कुछेक
फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में आंशिक वृद्धि की गई. इन फसलों का बाजार मूल्य
किसानों को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी अधिक है. इस प्रत्यक्ष सच को
जानने के लिए अरहर या तूर के दाल का उदाहरण लिया जा सकता है. जब अरहर की दाल बाजार
में 100-120 रुपये प्रति किलो अर्थात 10,000-12,000 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से मिल रही थी तो किसानों को इसका समर्थन
मूल्य महज 2300 रुपये प्रति क्विंटल दिया जा रहा था.
यह गौर करने वाली बात है कि सीएसीपी ने 2010-11 की अपनी
रिपोर्ट में धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य 766 रुपये प्रति क्विंटल करने की बात की
थी. जबकि 2009 में 18 में से 16 राज्यों में सिर्फ धान के उत्पादन की कीमत 1000
रुपये प्रति क्विंटल आई थी. अगर सरकार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही
न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती तो 2010-11 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य कम से
कम 1149 रुपये प्रति क्विंटल होता. करीब एक साल के बाद सरकार ने धान के एमएसपी को
बढ़ा कर साधारण धान के लिए 1080 रुपये प्रति क्विंटल और विशेष धान के लिए 1110
रुपये प्रति क्विंटल किया. गौरतलब है कि अखिल भारतीय किसान सभा ने सरकार से इन
कीमतों को क्रमश: 1500 रुपये प्रति क्विंटल और 1600 रुपये प्रति क्विंटल करने
की मांग की थी. सिर्फ केरल की लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार ने किसानों को
1400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान किया.
वहीं, दूसरी तरफ आर्थिक और सांख्यिकी निदेशालय ने जहां 2004-05 में
गन्ने की औसत लागत मूल्य 70.24 रुपये प्रति क्विंटल
आंका वहीं छह साल के बाद 2010-11 में उसने गन्ने के लागत मूल्य को महज 15 रुपये
बढ़ा कर 85.66 रुपये प्रति क्विंटल करार दिया. जबकि सीएसीपी के ही शोध में यह बात
निकलकर आई कि 2009-10 से 2010-11 के बीच गन्ने की लागत मूल्य में तीस फीसदी की
बढ़ोत्तरी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक गन्ने की सिर्फ कटाई में लगने वाली लागत
में 20 रुपये प्रति क्विंटल का इजाफा हुआ, जो कि मजदूरों के
मेहनताने में हुई बढ़ोत्तरी के कारण हुआ. निदेशालय के आंकड़ें कहते हैं कि प्रति
हेक्टेयर में बीज की लागत महज 5022.54 रुपये है जबकि कई राज्यों में बीज की लागत
12350-19760 रुपये प्रति हेक्टेयर आ रही है. अखिल भारतीय किसान सभा ने 2010-11 में
उत्तर प्रदेश(पूरब और पश्चिम), कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में गन्ने के उत्पादन में लगने वाली कीमतों का
हिसाब किया था. स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा पर अगर गौर किया जाता, जिसमें उन्होंने उत्पादन में लगी कुल लागत से पचास फीसदी अधिक का भुगतान
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में करने की बात कही थी तो पश्चिमी उत्तर
प्रदेश में किसानों को गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य 284.4 रुपये प्रति क्विंटल
से 367.50 रुपये प्रति क्विंटल के बीच होता. जबकि सरकार ने 2011-12 के लिए सरकार
ने गन्ने का एमएसपी महज 145 रुपये प्रति क्विंटल तय किया.
यूरिया की कीमतों में पिछले साल दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज
की गई. इतनी ही बढ़ोत्तरी 2011-12 के दौरान भी हुई थी. जो यूरिया 5,310 रुपया
प्रति टन के अधिकतम बिक्री मूल्य पर किसानों को मिल रहा था, उसके
लिए किसानों को अब 530 रुपया प्रति टन का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा है. यूरिया
की कीमतों का नियंत्रण कंपनियों के हाथ में चला गया है और वो गैस की कीमत और आयात
शुल्क सहित सभी तरह के करों का बोझ किसानों पर डाल देती है. गौरतलब हो कि 5 अगस्त,
2011 को मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने सौमित्र चौधरी समिति
की सिफारिश पर यूरिया को विनियंत्रित कर दिया था.
8 जुलाई 2011 को सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर यह साफ कर
दिया कि गैर-यूरिया उर्वरकों को भी जल्द ही बाजार के हवाले किया जाएगा. इससे ठीक
पहले उसी साल 5 मई को एक अधिसूचना जारी कर सरकार ने कंपनियों को डी अमोनियम
फास्फेट की कीमत में 600 रुपया प्रति टन की बढ़ोत्तरी करने की अनुमति दे दी थी, जिसके बाद
इसकी कीमत 10,750 रुपये प्रति टन हो गई. 5 मई को जारी
अधिसूचना के बाद डीएपी की कीमत 11,470 रुपये प्रति टन पहुंच
गई. वहीं, 8 जुलाई को डीएपी पर वैट लगाने के बाद आयात शुल्क
मिलाकर इसकी कीमत में 650 रुपये प्रति टन की बढ़ोत्तरी हो गई और कीमत 14,300 रुपये प्रति टन पहुंच गई. कुल मिलाकर दो महीने में डीएपी की कीमत में
3550 रुपये प्रति टन की जबर्दस्त बृद्धि हो गई.
सरकार के इस निर्णय को भारत के नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक
की रिपोर्ट के चश्मे से देखा जाए तो सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि पैंतालीस फीसदी
से अधिक किसानों ने अधिकतम बिक्री मूल्य से काफी अधिक का भुगतान करना पड़ा और करीब
60 फीसदी कसानों की जरूरत समय रहते पूरी नहीं की जा सकी. सीएजी की रिपोर्ट में यह
बात भी सामने आई कि कीमत बढ़ाने के लिए डीलरों द्वारा मौके पर खाद की कृत्रिम कमी
पैदा कर दी गई, ताकि वह अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकें. सीएजी की रिपोर्ट में
सरकार को इस बात का भी दोषी पाया गया कि वह जानबूझ कर महंगे खाद का आयात कर रही है
और देश के भीतर खाद के उत्पादन को हतोत्साहित कर रही है, जो
कि किसानों के लिए “आक्सीजन” की तरह
है. लेकिन सीएजी की फटकार के बाद भी सरकार अपनी धुन में है. बजाय कालाबाजारियों और
भ्रष्ट व्यवस्था से निपटने के सरकार ने किसानों को खाद कंपनियों के हवाले प्रताड़ित
होने के लिए छोड़ दिया.
खाद, रसायन और बीज की कीमत तय करने का अधिकार हाथ में आने के बाद
निजी कंपनियां बेलगाम हो गईं और कृषि में किसानों को निवेश करना दिनोंदिन महंगा
साबित होने लगा. कीटनाशकों और बीज जैसी अनिवार्य चीजों की कीमत को आसमान पर पहुंचा
कर मोंसेंटो, डूपोंट, कारगिल, सिन्गेंटा जैसी कंपनियों ने जमकर मुनाफा कमाया. इस प्रकार प्रताड़ित होने
के बाद करीब चालीस फीसदी किसानों ने मजबूर होकर कृषि छोड़ दी. सरकार यह सोच कर
उन्मादित हो रही है कि फसल की पैदावार में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है जबकि सच्चाई
यह है कि यह प्रति व्यक्ति उत्पादन महज 180-181 किलो हो पा रहा है, जो कि पहले होने वाले से बहुत ही कम है. कंपनियों के दखल से पहले उत्पादन
की स्थिति अभी से कहीं बेहतर थी. चीन सहित अन्य विकासशील देशों के साथ तुलना करने
के बाद हम पाते हैं कि प्रमुख खाद्यान्नों को मिलाकर भारत में उत्पादन की दर बदतर
है और यह दिनोंदिन ढ़लान पर आगे बढ़ रहा है. किसानों के समक्ष कर्ज न चुका पाने और
जबर्दस्त घाटा सहन करने की चुनौती दिनोंदिन विकराल होती जा रही है और किसानों के
समक्ष “उपजाओ अथवा मर जाओ” की स्थिति
पैदा हो गई है.
नकदी स्थांतरण योजना:
1 जनवरी, 2013 को सरकार ने 23 सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने
के लिए नकदी स्थांतरण योजना की शुरुआत की. इन सरकारी योजनाओं में मुख्य रूप से
छात्रवृत्ति और पेंशन से जुड़ी योजनाएं हैं. हालांकि इसमें मनरेगा को भी शामिल कर
दिया गया है. सरकार ने यह भी ऐलान कर दिया है कि नकदी स्थांतरण योजना को खाद्य,
केरोसिन और खाद वितरण की नीति पर भी लागू किया जाएगा.
दरअसल, इस प्रचंड महंगाई के बीच नकदी स्थांतरण योजना के तहत सरकार ने
खाद्य पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी को गायब करने की चाल चली है क्योंकि खाते
में जो रुपया स्थांतरित किया जाएगा उसमें अनाज की बढ़ी कीमत शामिल नहीं होगी. अनाज
के बदले रुपये देने से न केवल जन वितरण प्रणाली की व्यवस्था पंगु बन जाएगी बल्कि
सरकार किसानों से अनाज खरीदने से भी बच जाएगी और इसका सीधा नुकसान किसानों को
होगा. सरकार के इस कदम से देश में कुपोषण और भूखमरी और प्रचंड रूप में सामने आएगी.
महिलाओं के खिलाफ हो रही व्यापक हिंसा:
2002 से 2011 के बीच सिर्फ दिल्ली में
बलात्कार के चार मामलों में से तीन मामलों के दोषियों को अबतक सजा नहीं मिल पाई
है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2007 से 2011
के बीच बलात्कार की घटनाओं में 9.7 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. इसकी दो प्रमुख
वजहें हैं. पहला, न्याय व्यवस्था से जुड़ी संरचनात्मक
खामियों के कारण लोकतंत्र की प्रक्रिया अवरूद्ध हो रही है और हमारी न्याय प्रणाली
की स्थिति दयनीय बनी हुई है. जब तक कानून को लेकर लोगों के मन में डर नहीं पनपेगा,
लोग कानून का सम्मान नहीं करेंगे.
नव-उदारवादी नीतियों ने महिलाओं को एक वस्तु के तौर पर
प्रस्तुत किया और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर दिया. लैंगिक हिंसा और
बलात्कार आज भारत में तेजी से बढ़ते हुए अपराध हैं, लेकिन इसके दोषियों को सजा मिलने की दर
2011 में महज 25.9 दर्ज की गई है. दोषी होने पर भी न्यायपालिका द्वारा सजा में घोर
नरमी बरती जाती है.
अखिल भारतीय किसान सभा सहित सभी जन संगठनों को
पितृसत्तात्मक समाज की इस मनोवृति के खिलाफ एकजुट होना होगा और महिलाओं को उनके
अधिकार दिलाने हेतु संगठित होकर लड़ना होगा.
भ्रष्टाचार और महंगाई:
कोयला घोटाला और सिंचाई घोटाला सहित ताबड़तोड़ हो रहे बड़े
घोटालों से देश को हिलाकर रख दिया है. सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार कोयला घोटाला से
सरकार को 1.7 लाख करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ. इसी तरह सिंचाई
घोटाले में 70,000 करोड़ रुपये से अधिक का राजस्व नुकसान
हुआ. कारपोरेट सेक्टर को सरकार भारी छूट दे रही है और कारपोरेट घराने देश के
संसाधनों और जमीन को निगलते जा रहे हैं. अगर 2004 के बाद कारपोरेट सेक्टर के मुख्य
कार्यकारी अधिकारी व अन्य अधिकारियों को दी गई आयकर छूट को जोड़ जाए तो यह करीब 26
लाख करोड़ रुपया होता है. गरीबों के समक्ष जीवनयापन का खतरा पैदा हो रहा है और
सरकार कारपोरेट सेक्टर को खुली लूट मचाने के लिए छोड़ दी है. इसके बावजूद सरकार
गरीबों पर कर का बोझ दिनोंदिन बढ़ाती जा रही है, एलपीजी
सिलेंडर और डीजल की बढ़ रही कीमतें इसका उदाहरण है. डीजल की कीमत में पांच रुपये
की बढ़ोत्तरी कर दी गई और सब्सिडी वाले रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्यां को घटाकर
छह कर दिया गया. अतिरिक्त सिलेंडर के लिए अब आम आदमी को 1000 रुपया देना पड़ रहा
है. खाद्य महंगाई सितंबर में 12 फीसदी तक पहुंच गई. तब जबकि खाद्य पदार्थों की
महंगाई आसमान छू रही है, सरकार ने 70 लाख टन खाद्यान्न को
खुले बाजार के हवाले करने के निर्णय कर लिया है जबकि इसका वितरण जनवितरण प्रणाली
के तहत किया जाना चाहिए था. सरकार का यह कदम सिर्फ व्यापारियों को फायदा पहुंचाएगा
और आम लोगों को खाद्यान्न की कीमतों में किसी भी तरह की कोई राहत मिलने की संभावना
खत्म हो जाएगी. सरकार की इन नीतियों के खिलाफ लोगों ने वाम मोर्चा द्वारा 20
सितंबर को आहूत भारत बंद में अपना जबर्दस्त योगदान दिया. एक ओर जहां कांग्रेस
नेतृत्व में बनी संप्रग सरकार सहित सभी पार्टयां जनविरोधी नीतियों के सहारे आगे
बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर अखिल भारतीय किसान सभा भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ और
जन वितरण प्रणाली को सर्वव्यापी बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
किराएदार की हैसियत से रह रहे किसानों को अवैध तरीके से
खदेड़े जाने के खिलाफ दरभंगा जिले के विरानिया गांव में जबर्दस्त विरोध हुआ. वहीं, बेगूसराय
जिले में किसानों ने किसान सभा के बैनर तले संघर्ष करके जमीन और पट्टा हासिल करने
में सफलता हासिल की. जमींदारों की धमकियों की परवाह न करते हुए मधुबनी जिले के
माधापुर प्रखंड के 45 दलित परिवारों ने आवास के लिए जमीन छीनकर ली.
किसान सभा ने कई जिला मुख्यालयों के समक्ष 9 मई को रैलियों
का आयोजन किया. दूसरी तरफ भूमि सुधार के खिलाफ सामंती जमींदारों ने पटना सहित अन्य
जिलों में महापंचायत की. ग्रामीण क्षेत्रों में बटाईदारों को हटाया जाना शुरू कर
दिया गया. किसान सभा और कृषि मजदूर संघ ने संयुक्त रूप से 12 मई,2010 को
राज्य स्तरीय भूमि सुधार सम्मेलन का आयोजन पटना में किया, जिसमें
300 कैडर ने अपनी भागीदारी दी. इससे ठीक पहले 14 मार्च को दरभंगा और बेगूसराय जिले
से राज्यवार जत्था भी निकाला गया.
कॉमरेड अजित सरकार के शहादत दिवस 14 जून, 2010 को डी
बंधोपाध्याय समिति की रिपोर्ट को लागू करने की मांग करने के लिए एक विशाल प्रदर्शन
का आयोजन पटना में किया गया, जिसमें करीब 8000 गरीब, भूमिहीन आदिवासी और दलितों ने भाग लिया. इस प्रदर्शन को एस रामचरण पिल्लई,
बृंदा करात, हन्नान मोल्लाह और एन.के.शुक्ला
ने संबोधित किया. सीतामढ़ी में 750 भूमिहीनों ने 85 एकड़ जमीन हथिया लिया और उसपर
झोपड़ी बना ली. बेगूसराय के बाजितपूर गांव में 10 एकड़ जमीन पर 70 झोपड़ियां बनाई
गई और रोहतास में चार एकड़ सरकारी जमीन को हथिया लिया गया. खगड़िया और सीतामढ़ी
में 700 परिवारों को जमीन पर से खदेड़ने के प्रयास में उन्हें विफल कर दिया गया.
फारबिसगंज में एक गर्भवती सहित चार लोगों की मौत पुलिस
फायरिंग में हो गई. ये लोग निजी क्षेत्र द्वारा अपने जमीन के जबर्दस्ती अधिग्रहण
के खिलाफ मुख्य सड़क जाम करके प्रदर्शन कर रहे थे. इस बर्बर कार्रवाई के खिलाफ 5
जून, 2011 को एक विरोध रैली निकाली गई.
भूमि माफियाओं द्वारा हथियाई गई गया जिले के बोधगया प्रखंड
में 5 एकड़ जमीन को मुक्त कराया गया और 15 जुलाई,2011 को 150 झोपड़ियां बनाई गई. पूर्णियां
जिले के गणेशपुर पंचायत में 50 एकड़ जमीन हासिल कर गरीब आदिवासियों के लिए
झोपड़ियों का निर्माण कराया गया. अशोक पेपर मिल के पास बंजर पड़ी जमीन को गरीब और
किसानों के बीच बांटने की मांग करने के लिए किसान सभा के अध्यक्ष लल्लन चौधरी के
नेतृत्व में जुटे हजारों किसानों का गिरफ्तार कर लिया गया. मधेपुरा, सारण और सहरसा में किसान सभा ने सरकारी जमीनों को छीन कर किसानों को आवास
महैया करवाया.
झारखंड:
झारखंड हाउसिंग बोर्ड द्वारा 256 एकड़ जमीन से किसानों को
बेदखल करने के प्रयास का प्रचंड विरोध करते हुए 2500 किसानों ने 17 जुलाई, 2012 को दस
किलोमीटर लंबी रैली निकालकर प्रदर्शन किया. 1100 एकड़ जमीन से 15000 किसानों को
खदेड़ने का षडयंत्र जिंदल स्टील और हिंडालको द्वारा किया जा रहा है. जामतारा जिले
के कुंदाहित प्रखंड में 3000 एकड़ जमीन पर 1400 बटाईदारों को बसाया गया, इस प्रयास के दौरान 2009 में कॉंमरेड सुरेन्द्र मुर्मू की हत्या जमींदारों
द्वारा कर दी गई. जामतारा जिले के ही फतेहपुर, नारायणपुर और
कुंडहित प्रखंड में किसान सभा द्वारा दो साल संघर्ष करके 423 एकड़ जमीन आदिवासियों
का वापस सौंपा गया. रांची, चतरा, बोकारो
और लोहरदग्गा में वन भूमि अधिकार के लिए संघर्ष अब भी जारी है.
हिमाचल प्रदेश:
18 जनवरी 2010 को किसानों के जमीन के नियमन के लिए रामपुर
में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 250 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया.
प्रखंड स्तरीय पांच सम्मेलन के बाद भूमि बचाओ कमेटी का गठन किया गया और 16 मार्च
2010 को इस मुद्दे पर 25 प्रखंडों पर धरना दिया गया एवं रैलियां निकाली गई.
ओडीशा:
वन विकास निगम के द्वारा काजू बागान के विकास के नाम पर
जमीन से बदखल कर दिए गये गंजम जिले के करीब 2600 परिवारों और नयागढ़ जिले के करीब
630 परिवारों को ओडीशा क्रुशक सभा के बैनर तले संघर्ष करके पुनर्वासित किया गया.
गजपति जिले में करीब 1300 एकड़ धान के खेत को सरकार के
अप्रत्यक्ष समर्थन से सामंती जमींदारों ने कब्जा लिया. ओडीशा क्रुशक सभा और
आदिवासी महासभा के बैनर तले संघर्ष करके आदिवासी किसानों ने इसे वापस हासिल किया
और इसपर बुआई की. बीजू जनता दल और वाम-अतिवादियों के आतंक के बावजूद ओडिशा क्रुशक
सभा अपनी जगह पर डटा रहा. केन्द्रपारा जिले में 50000 बंगाली अप्रवासियों से उनकी
नागरिकता को लेकर सवाल किए जा रहे हैं. ओडिशा क्रुशक सभा ने इस मुद्दे को दमदार
तरीके से उठाया और राज्य विधानसभा और प्रधानमन्त्री से शिकायत कर इस मसले का
तत्काल समाधान करने की मांग की. कुलदिहा वन्य क्षेत्र सहित 273 वर्ग मीटर वनभूमि
में रहने वाले 50 गांवों का जमीन खाली कर देने व उनकी जमीन का अधिग्रहण किए जाने
का नोटिस सरकार द्वारा थमाये जाने के बाद ओडिशा क्रुशक सभा ने आदिवासी महासभा के
साथ मिलकर बालासोर जिलाधिकारी के कार्यालय और राज्य विधानसभा के समक्ष 17 सितंबर, 2011 को
प्रदर्शन किया. ओडीशा क्रुशक सभा के द्वारा ऊर्जा संयंत्र के लिए नयागढ़, पोस्को के लिए पारादीप और खांडधर खदान के लिए सुंदरगढ़ में किए जाने वाले
अधिग्रहण का जोरदार विरोध किया गया.
ओडीशा क्रुशक सभा ने 3000 किसानों के साथ भूमिहीनों को जमीन
देने की मांग के साथ भुवनेश्वर में राज्य विधानसभा के समक्ष प्रदर्शन किया. इस
संघर्ष के बाद सरकार ने बाध्य होकर एक सर्कुलर सभी जिलाधीशों को जारी कर सर्वेक्षण
कर ग्रामीण इलाकों में सभी भूमिहीन परिवारों को दस शतांश जमीन आवंटित करने का
निर्देश दिया.
उत्तर प्रदेश:
जिकरपुर में जबर्दस्ती जमीन अधिग्रहित करने पर अमादा हो
चुकी सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण धरना देने के दौरान टप्पल क्षेत्र के किसानों पर
अलीगढ़ जिला पुलिस ने गोली चलाई. किसान सभा ने इस घटना के बाद 23 जिला मुख्यालयों
पर धरना प्रदर्शन का आयोजन किया और नोएडा की तर्ज पर किसानों को मुआवजा देने का
मांग करने के साथ-साथ पुलिस की गोली में मारे गये किसानों के परिजनों का दस लाख
मुआवजा देने की मांग की. साथ ही किसान सभा ने 1894 में बने भूमि अधिग्रहण कानून की
जगह किसानों के हित में कानून बनाने की मांग की. 22 अगस्त, 2010 को
अखिल भारतीय किसान सभा के केन्द्रीय और प्रदेश के नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल ने
घटनास्थल का जायजा लिया और पुलिस की गोली से मरे और घायल हुए किसानों के परिजनों
से मुलाकात की. 24 नवंबर, 2010 को रेलवे फ्रेट कॉरिडोर के
लिए किए जाने वाले जबर्दस्ती अधिग्रहण के विरोध में हजारों किसानों ने इटावा
जिलाधिकारी कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया. 8 दिसंबर 2010 को पश्चिमी उत्तरप्रदेश
के 500 प्रतिनिधियों ने जबर्दस्ती भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मथुरा में एक सम्मेलन
आयोजित किया. किसानों के प्रदर्शन के बाद सरकार मुआवजे की राशि में आंशिक
बढ़ोत्तरी करने को बाध्य हुई. रेलवे, यमुना और गंगा
एक्सप्रेस-वे के लिए हो रहे बलपूर्वक अधिग्रहण के विरोध में 22 और 23 दिसंबर को कई
जगह प्रदर्शन किया गया.
1 फरवरी, 2011 को बुलंदशहर और उससे सटे तीन जिलों में राज्य सरकार
द्वारा किए गये अधिग्रहण के एवज में वाजिब मुआवजे की मांग के लिए संघर्ष कर रहे
किसान सभा के करीब 400 सदस्यों को दनकौर में गिरफ्तार कर लिया गया. बलपूर्वक
अधिग्रहण के विरोध में सोनभद्र जिले में एक हफ्ते तक भूख हड़ताल किया गया. 17 और
18 जुलाई, 2011 को गौतमबुद्ध नगर, अलीगढ़,
मथुरा और आगरा में दो दिनों का पड़ाव आयोजित किया गया, जिसमें एस रामचरण पिल्लई और एन के शुक्ला भी शामिल हुए.
रेलवे फ्रेट कोरिडोर के लिए हुए अधिग्रहण का शिकार हुए
किसानों के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने और मुआवजे की राशि बढ़ाए जाने की
मांग को लेकर इटावा जिले के कोर्ट परिसर में 17 जुलाई, 2012 को एक
किसान पंचायत का आयोजन किया गया, इसे सांसद बासुदेव आचार्य
ने संबोधित किया. संघर्ष को बनाए रखते हुए 2 और 3 अक्टूबर को सामूहिक भूख हड़ताल
भी किया गया.
राजस्थान:
जमीन के बलपूर्वक अधिग्रहण के खिलाफ राज्य के झुनझुनू और
सिकार जिले में प्रदर्शन किया गया. झुनझुनू जिले के नवलगढ़ तहसील में लगातार 270
दिनों तक धरना दिया गया. वन्य भूमि के लिए पट्टा की मांग और रहने के अधिकार के लिए
उदयपुर और दुर्गापुर में करीब 3000 आदिवासियों ने प्रदर्शन किया.
हरियाणा:
अंबाला, सिरसा, फतेहाबाद, पलवल,
फतेहाबाद में बलपूर्वक जमीन अधिग्रहण के खिलाफ कृषि मजदूर संघ और
अन्य वामपंथी संगठनों के साथ मिलकर धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल और रैलियों का आयोजन किया. इन मुद्दों पर 11 नवंबर, 2010 को संसद के समक्ष भी प्रदर्शन किया गया. इसके बाद सरकार ने बाध्य
होकर भूमि अधिग्रहण नीति में संशोधन करके उसमें जमीन देने वाले किसानों के परिवार
के एक सदस्य को नौकरी और मुआवजे की राशि में संशोधन को शामिल किया.
उत्तराखंड:
हाइड्रो-कार्बन परियोजनाओं के लिए की जा रही ताबड़तोड़
खुदाई का सक्रिय विरोध किसान सभा करता रहा है. इसके साथ ही विस्थापन के सवाल को
किसान सभा ने मजबूती से उठाया है.
देहरादून में राज्य स्तरीय विरोध प्रदर्शन और राष्ट्रीय नेताओं के साथ संसद मार्च
का भी आयोजन किया गया. आंदोलन में शामिल नेताओं को राज्य के दमन का शिकार होना
पड़ा और गिरफ्तारियां भी देनी पड़ी. इस दौरान राज्य द्वारा मानवाधिकार को ताक पर
रख दिया गया.
2. आदिवासी भूमि और वन्य अधिकार:
महाराष्ट्र:
अहमदनगर, अवतमाल, ठाने और नंदुरबार में अफसरों
द्वारा वन्य अधिकार कानून को लागू करने में हो रही अनावश्यक देरी और इस रास्ते में
रोड़े अटकाने के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने के लिए किसान सभा और कृषि मजदूर
संगठन ने 22 फरवरी, 2010 को मुंबई में आदिवासी विकास विभाग
के सचिव से मुलाकात की. सचिव ने तत्काल जिलाधिकारियों को इस कानून को लागू करने
में आने वाली रूकावटों को दूर करने का सख्त निर्देश दिया, जिसका
बेहतर प्रभाव देखा गया. 25 अगस्त, 2010 को किसान सभा, कृषि मजदूर संगठन और आदिवासी अधिकारी मंच ने वन्य अधिकार कानून की मांग
के लिए ठाने और नासिक जिले में दो विशाल रैली निकाली जिसमें क्रमश: 20000 और 15000
लोगों ने भाग लिया. 10 अक्टूबर 2010 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार ने
ठाने जिले के दपहरी गांव में 35000 लोगों की विशाल रैली को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने इस कानून के उन महत्वपूर्ण संशोधनों का भी जिक्र किया,
जिसे उन्होंने अपने राज्यों मे किया है. बड़ी संख्या में आदिवासियों
के आवेदनों को निरस्त करने और वन्य अधिकार कानून को लागू करने में आनाकानी करने कि
खिलाफ किसान सभा ने दिसंबर, 2010 में जेल भरो आंदोलन किया.
आदिवासी मामलों के केन्द्रीय मंत्री के अनुसार अनुमंडलाधिकारी स्तरीय कमेटी ने 3,35,701 में से महज 1,15,914 आवेदन ही स्वीकृत किए. नासिक जिले में 60000 किसान, जिसमें ज्यादातर आदिवासी थे, को गिरफ्तार कर लिया
गया. अन्य जिलों में भी ऐसा ही दमन देखने को मिला.
ओडीशा:
अनुगुल जिले में क्रुशक सभा और आदिवासी महासभा ने 776 लोगों
के लिए पट्टे के लिए आवेदन किया और लगातार कड़े संघर्ष के कारण इनमें से 534 लोगों
को जमीन आवंटित की गई. आदिवासियों ने 70 एकड़ वन्य जमीन पर अपना कब्जा कर लिया और
वन्य अधिकारी, पुलिस और राजनीतिक गंडों से झड़प के बावजूद वहां से नहीं
डिगे. वहीं, दूसरी तरफ 200 परिवारों ने पट्टे के लिए आवेदन
किया जिनमें से 21 को किसान सभा के हस्तक्षेप के बाद पट्टा दिया गया. अनुगुल जिले
के पल्लाहाडा तहसील में 600 आदिवासियों ने आवास के लिए और उपजाऊ जमीन के पट्टे के
लिए आवेदन किया, जिसमें से 360 परिवारों को पट्टा दिया गया.
बालासोर जिले में 5500 और जलासोर तहसील के अंदर निलगिरी व राइबनिया में 1000 आवेदन
दाखिल हुए जिसमें 250 लोगों को पट्टा दिया गया. कार्यवाही में देरी के विरोध में
3000 लोगों ने प्रदर्शन किया. निलगिरी में 1000 लोगों को वन्य जमीन का पट्टा दिया
गया और 150 आवेदकों को आवास हेतु पट्टा दिया गया.
भोग्रोई प्रखंड में बटाईदारों की पहचान की मांग एवं आवास के
लिए पट्टे की मांग के लिए धरना दिया गया, जिसमें 150 कार्यकर्ता शामिल हुए. गंजम में
3000 लोगों ने पट्टे के लिए आवेदन किया जिनमें से 500 को पट्टा दिया गया. इसी तरह केयोनझार
में 1000 और देवगढ़ 500 लोगों को पट्टा
दिया गया. बटाईदारों की सही पहचान और उनके बीच पहचान पत्र का वितरण करने की मांग
के लिए एक सम्मेलन का आयोजन भी किया गया.
मध्य प्रदेश:
सिधी, रेवा, सतना, शाहडोल,
सिंगरौली, अनुप्पुर और उमानिया सहित 11 जिलों
में वन्य अधिकार कानून को लागू करवाने के लिए अभियान चलाया गया. शाहडोल और रेवा
में तीन दिनों तक क्षेत्रीय आयुक्त के कार्यालय का घेराव भी किया गया, जिसमें आदिवासियों सहित भारी संख्या में किसानों ने भाग लिया. रतनाम
जिलाधिकारी के समक्ष 2000 आवेदन आए जिनमें से वन्य अधिकार कानून के तहत हक मांगने
के 1730 आवेदन आए.
राजस्थान:
10 और 11 जून, 2010 को उदयपुर में आदिवासी अधिकारों के
लिए राज्य-स्तरीय सम्मेलन का आयोजन किया गया. वन्य जमीन के पट्टे के लिए उदयपुर और
दुंगरपुर में करीप 3000 आदिवासियों ने विरोध प्रदर्शन किया. जमीन से बदखल किए जाने
के विरोध और पट्टे की मांग के लिए 30 अगस्त, 2012 को 3000
आदिवासियों ने उदयपुर में विरोध प्रदर्शन किया. उदयपुर के गोगुंडा तहसील में
इन्हीं मांगों को लेकर 4000 आदिवासियों ने विरोध प्रदर्शन किया.
3. किसानों की आत्महत्या पर:
केरल:
संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकार बनने के एक साल के
भीतर आर्थिक व अन्य कारणों, जिसमें लोन न चुका पाना प्रमुख है, से
करीब 55 किसान आत्महत्या कर चुके हैं जबकि वाम लोकतांत्रिक मोर्चे के पांच साल के
कार्यकाल के दौरान बनाई गई जनहित की नीतियों के कारण एक भी किसान ने आत्महत्या
नहीं की.
किसान सभा की प्रदेश इकाई ने सरकार पर किसानों के हित में
काम करने एवं पीड़ित परिवारों को मदद देने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य
से राज्य सचिवालय के समक्ष सत्याग्रह का आयोजन किया. इसमें 1000 से अधिक किसानों
ने भाग लिया.
बंगाल:
किसान-विरोधी एवं नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के कारण
तृणमूल कांग्रेस की सरकार के कार्यकाल के पहले साल में ही 50 से अधिक किसानों ने
आत्महत्या कर ली है. वहीं, वाम मोर्चे की सरकार के 34 सालों के दौरान एक भी किसान ने
आत्महत्या नहीं की. आम आदमी को वाम सरकार की नीतियों और तृणमूल कांग्रेस की
नीतियों में साफ अंतर दिख रहा है. किसान सभा की प्रदेश इकाई ने सरकार की जनविरोधी
नीतियों के खिलाफ प्रदेशभर में विरोध प्रदर्शन किया.
ऊर्जा आपूर्ति एवं उससे जुड़ी समस्या
केरल:
बिजली की टैरिफ दरों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ 1 अगस्त, 2012 को
बिजली प्रभाग कार्यालय पर एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया.
आंध्र प्रदेश:
नालगोंडा, वरानगल, खम्माम, कृष्ण,
पश्चिम गोदावरी और नेलोर जिलों में सात घंटे बिजली देने और कृषि
क्षेत्र वाले जगह में बिजली आपूर्ति कम होने के विरोध में जून और जुलाई, 2012 में करीब 100 जिलों पर हजारों की संख्या में प्रदर्शन किया गया.
उत्तर प्रदेश:
2012 में जून से अगस्त के बीच किसान सभा द्वारा बुलंदशहर
में बिजली की बदतर हालत के खिलाफ लगातार धरना और प्रदर्शन किया गया. इस आंदोलन के
बाद स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ. इसी तरह का प्रदर्शन चंदौली, सुल्तानपुर,
देवरिया और मुजफ्फरनगर जिले में भी किया गया.
हरियाणा:
कृषि के लिए बिजली की सुचारू आपूर्ति की मांग के लिए सिरसा, फतेहाबाद,
हिसार, भिवानी, कैथल,
जिंद और रोहतक में धरना और विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया.
मध्य प्रदेश:
न्यून बिजली आपूर्ति, आपूर्ति में होने वाली दिक्कतें, सिंचाई व्यवस्था, खाद, उर्वरक
की कृत्रिम कमी, मनरेगा और वन्य अधिकार के लागू करने के लिए
पूरे प्रदेश में जागरूकता अभियान चलाया गया. इन सब समस्याओँ को लेकर 27 सितंबर,
2012 को भोपाल में एक विरोध रैली निकाली गई. इस रैली को कामरेड एन
के शुक्ला और कृष्ण प्रसाद ने संबोधित किया.
फसल से जुड़ी समस्या, फसल की क्षति एवं बीमा:
राजस्थान:
चुरू जिले में चना एक मुख्य फसल है. बीमा कंपनियों ने
किसानों से प्रति हेक्टेयर की दर से 200 रुपया वसूल किया, इसी तरह
राज्य सरकार और केन्द्र सरकार ने तीन-तीन सौ रुपये किसानों से लिए. इस तरह किसानों
ने प्रीमियम के तौर पर 800 रुपये दिए और 10,000 हेक्टेयर को
बीमा सुरक्षा दिया गया.
फसलों की भयंकर क्षति के बावजूद बीमा कंपनी और सरकार ने
किसानों को बीमा का लाभ नहीं दिया और किसानों के साथ छल किया. चुरु जिले के
किसानों को सर्वेक्षण की खामियों की बात कहकर बीमा कंपनियों ने सरकार से बीमा
क्लेम को 167 करोड़ रुपया तक सीमित करने को कहा. बीमा कंपनियों ने राजगढ़ मौसम
विभाग के अंतर्गत आने वाले 113 गांवों और सरदार शहार तहसील के 90 गांवों के क्लेम
को शून्य करार देने का निर्णय लिया. यह बिल्कुल अस्वीकार्य था.
अप्रैल, 2012 में चुरु जिलें के किसानों ने आंदोलन करने का निर्णय
लिया. अखिल भारतीय किसान सभा ने 1 से 31 मई के बीच एक महीने तक धरना का आयोजन
किया. तहसील समितियों ने 22 से 24 मई, 2012 तक धरने का आयोजन
किया. इस दौरान रास्ता रोको और विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया. 4 जून को हजारों
किसानों ने जिलाधिकारी कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया. एक महीने के संघर्ष ने
अधिकारियों को बाध्य किया कि वह फसल बीमा की रकम को 100 करोड़ रुपया बढ़ाएं.
जब बीमा कंपनियों ने किसान सभा द्वारा 6000 रुपये प्रति
हेक्टेयर के क्लेम की मांग को नहीं मानकर 4380 रुपये प्रति हेक्टेयर पर रजामंदी
जताई तो इसके विरोध में 11 जुलाई, 2012 को किसान सभा ने सड़क जाम कर दिया. पंजाब नेशनल बैंक के
प्रबंधक का घेराव किया गया. तहसील किसान सभा समितियों ने वाजिव मुआवजा और बीमा
क्लेम के लिए विरोध प्रदर्शन किए. इस दौरान निकाली गई रैलियों को किसान सभा के
नेताओं ने संबोधित किया. इसके बाद ग्रामीणों के बीच संपर्क बाधित करने के उद्देश्य
से पुरानी सड़क और सरदारशहर को जोड़ने वाली रेल लाईन से सटे रास्ते को बंद कर दिया
गया. इससे ग्रामीण आगबबूला हो गए. हजारों की संख्या में पुरूष और महिलाओँ ने नजोरी
के पास पांच घंटों तक रेल गतिविधियों को ठप कर दिया. 13 जुलाई, 2012 को सैकड़ों लोगों ने रेलवे परिचालन बंद कर दिया. इससे बाध्य होकर
राज्य के अधिकारियों और रेलवे अधिकारियों ने आवागमन के लिए रेलवे लाइन से सटे
रास्तों को खोला. इसके बाद कई नेताओँ पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर दिए गये. इस हंगामें
के बाद फसल बीमा में धांधली का मुद्दा और प्रचारित हो गया और इसे आम लोगों का
समर्थन मिलने लगा.
फसल बीमा के वाजिव मुआवजे के लिए अखिल भारतीय किसान सभा के
प्रदेश अध्यक्ष और विधायक अम्रा राम के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री
से मिला. 11 जुलाई को किसान सभा के प्रदर्शनकारियों ने अनुमंडलाधिकारी का घेराव
किया. इसके बाद अनुमंडलाधिकारी ने 38 करोड़ में से 35 करोड़ रुपये का तुरंत भुगतान
करने का निर्देश दिया.
चुरू में किसान सभा ने 6000 रुपया प्रति हेक्टेयर की मांग
को लेकर 18 जुलाई, 2012 से अनिश्चितकालीन धरना दिया. 26 जुलाई, 2012 को जिलाधिकारी कार्यालय के द्वार को बंद कर दिया गया. तारानगर में
किसानों के 14 दिनों तक चले धरने के बाद उन्हें बीमा मुआवजे के रूप में 67 करोड़
रुपये का भुगतान किया गया. इसके बावजूद 3100 किसानों को उनके हिस्से के 12 करोड़
रुपये का भुगतान नहीं किया गया, जिसके बाद किसान सभा को 25
जून से धरना फिर से शुरू करने का फैसला लिया गया. 10 जुलाई से तीन दिन तक तहसील पर
जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया गया. किसानों के अनवरत संगठित संघर्ष के बाद सरकार
ने तारानगर के किसानों को 12 करोड़, चारू के किसानों को 2.37
करोड़ और सरदार शहर के किसानों को 4.55 करोड़ रुपये, रतनग्रह
के किसानों को एक करोड़ के भुगतान करने का ऐलान किया. चुरु में किसानों को 204
करोड़ रुपये का भुगतान किया गया.
सीटू, एसएफआई, एआईएडब्ल्यूयू, डीवाईएफआई, एआईडीडब्ल्यूए और कर्मचारी संघ के सहयोग
से लड़ी लड़ाई के बाद मिली यह एक ऐतिहासिक थी.
त्रिपुरा:
पिछले साढ़े तीन सालों से प्रदेश किसान सभा लघु चाय किसानों
और रबर उत्पादकों के लिए सम्मेलन आयोजन करने के अलावे भारत-आसियान मुक्त व्यापार
समझौते का विरोध कर रहे हैं.
पश्चिम बंगाल:
वाम किसान संगठनों की ओर से एक प्रतिनिधि-मंडल ने राज्य के
कृषि मंत्री से मिलकर फसल क्षति और अकाल की मार झेल रहे किसानों के लिए तत्काल
मुआवजे की मांग की.
महाराष्ट्र:
फसल क्षति एवं अकाल से जूझ रहे किसानों के लिए 15 जिलों के
तहसील कार्यालय पर 30 हजार किसानों को जुटा कर मुआवजे की मांग की गई. कुछ मांगों
को मान लिया गया.
बिहार:
22 जुलाई को नवादा जिले के हिसुआ में बिहार को सूखाग्रस्त
राज्य घोषित करने की मांग को लेकर एक सम्मेलन का आयोजन किया गया. सूखाग्रस्त
क्षेत्र के लोगों को राहत देने की मांग करने के लिए करीब दर्जनभर जिलों में
सामूहिक भूख हड़ताल और धरना का आयोजन किया गया. दरभंगा के कुशेश्वरनाथ में मई के
पहले सप्ताह में भोजन और कटाव के कारण विस्थापित लोगों की समस्या को लेकर एक
सम्मेलन का आयोजन किया गया.
केरल:
थ्रिसूर में 4 अगस्त को धान के किसानों का एक सम्मेलन
आयोजित किया गया, जिसमें करीब 350 किसानों ने भाग लिया और राज्य व केन्द्र
सरकार की किसान विरोधी नीतियों की जमकर आलोचना की. कोझीकोड़े में 5 अगस्त को
नारियल किसानों का सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें 432
नारियल किसानों ने अपनी भागीदारी दी. इसी तरह कोट्टयम में 17 अगस्त को रबर
उत्पादकों के लिए एक सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें 380 किसानों ने भाग लिया. इन सभी
सम्मेलनों मे सर्वसम्मति से सरकार की नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ संगठित होकर
संघर्ष करने की शपथ ली गई, क्यूंकि यही नीतियां किसानों के
दमन और उनके विस्थापन की समस्या की मूल वजह है.
तमिलनाडु:
नारियल की कीमतों में गिरावट के विरोध में नारियल किसानों
के संगठन ने 26 जून 2012 को एक बड़े विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया और मांग की कि
गरी की न्यूनतम कीमत 70 रुपये प्रति किलो हो. साथ ही यह भी सरकार से गरी
अधिप्राप्ति केन्द्र की स्थापना करने की मांग करने के साथ प्रति गरी 15 रुपये के
हिसाब से किसानों को भुगतान करने की भी मांग की गई. इसके बाद सरकार को बाध्य होकर
सौर्य ऊर्जा आधारित 13 गरी शीत भंडार के निर्माण सहकारी तरीके से करने का आदेश
देना पड़ा.
विल्लूपुरम और सिवगंगई के गन्ना किसानों को उनका बकाया
दिलवाने के लिए 4 सितंबर से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू किया गया, जिसके बाद
सरकार ने 6 सितंबर को किसानों के बकाए का भुगतान कर दिया. 26 जुलाई को निजी और
सहकारी चीनी मिलों को बचाए रखने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया.
आंध्र प्रदेश:
थुन्नूपला और येतिकोपला चीनी फैक्ट्रियों पर किसानों के
बकाए के भुगतान के लिए जिलाधिकारियों को मांगपत्र सौंपा गया, जिसके बाद
किसानों को भुगतान संभव हो पाया. विजयनगर जिले में 11 और 27 अगस्त को चीनी
फैक्ट्रियों के समक्ष किसानों की किस्तों का भुगतान नहीं करने के विरोध में प्रचंड
विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया. नेलोर जिले में भी कोव्वूर और थडीपथरी चीनी
फैक्ट्रियों के समक्ष इन्हीं मांगों को लेकर धरना दिया गया.
साल 2012 के जून और जुलाई महीने के दौरान आए भयंकर सूखे से
प्रभावित किसानों को 2011-12 के रवि मौसम में सब्सिडी और सरकारी मदद की मांग को
लेकर किसान सभा ने नालगोंडा, वरंगल और खम्मान जिले में धरना-प्रदर्शन किया. इस सूखे में
चावल और मूंगफली की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई थी.
असम:
छोटे चाय किसानों की समस्या को किसान सभा की असम इकाई ने
जोरदार तरीके से उठाया. राज्य में 76 हजार पंजीकृत छोटे चाय किसान हैं. अगर
गैरपंजीकृत किसानों को जोड़ दिया जाये तो यह आंकड़ा एक लाख तक पहुंच जाएगा. इनकी
मूल समस्या जमीन का पट्टा, फसल की कीमत और फैक्ट्री खोलने की सरकार से लगातार की जा रही
मांग का दरकिनार किया जाना है. 25 मार्च, 2012 को जोरहट जिले
के तीताबार में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें असम के
ऊपरी क्षेत्र के छह जिलों के 300 छोटे किसानों ने भाग लिया. इस मौके पर त्रिपुरा
औद्योगिक विकास निगम के अध्यक्ष पबित्र कर उपस्थित हुए. किसान सभा के स्थानीय
नेताओं के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया गया.
उत्तराखंड:
जानवरों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाने के बाद सरकार से
मुआवजे की मांग के लिए 30 अक्टूबर, 2012 को कई जिला मुख्यालयों पर धरना एवं
विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया.
अंडमान और निकोबार:
स्थानीय प्रशासन द्वारा लिए गये बफर जोन के निर्णय पर
पुर्नविचार करने और सुनामी से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने की मांग को लेकर
अभियान चलाया गया ताकि 1949-66 के बीच आए पूर्वी बंगाल के अप्रवासियों की रक्षा की
जा सके.
महंगाई, मेहनताना और खाद्य सुरक्षा:
केरल:
उर्वरक की कीमत में बढ़ोत्तरी के विरोध में 14 जुलाई, 2012 को
वामपंथी लोकतांत्रिक किसान संगठन द्वारा 13 समाहरणालयों और विधानसभा के समक्ष
18000 किसानों ने धरना-प्रदर्शन किया. केरल कर्शक संघम ने तिरूवन्नतपूरम में
एमआईएलएमए मुख्यालय और उसकी सभी सोसायटी के समक्ष मवेशियों के खाद्य पदार्थ की
कीमत में बढ़ोत्तरी करने के खिलाफ विशाल धरना दिया और विरोध प्रदर्शन किया,
संघ ने डेयरी व्यवसाय से जुड़े किसानों को पांच रूपये प्रति लीटर की
छूट और मवेशी खाद्यान्न में पचास फीसदी सब्सिडी देने की मांग की.
पश्चिम बंगाल:
बर्बर दमन और शारीरिक प्रताड़ना के बावजूद पश्चिम बंगाल
कृषक सभा ने कृषि उत्पादों सहित आवश्यक वस्तुओँ की कीमतों में की गई बृद्धि और धान, जूट,
आलू की कीमतों में की गई कमी, उर्वरक की
कालाबाजारी और बाढ़ से प्रभावित किसानों को सरकारी मुआवजा देने के लिए 14 जिलों
में प्रखंड विकास पदाधिकारी, अनुमंडलाधिकारी और
जिलाधिकारियों के समक्ष विरोध प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन में भारी संख्या में
लोगों ने भाग लिया. किसान सभा ने 2012 के जुलाई और अगस्त महीने में एक अभियान
चलाकर जनवितरण प्रणाली के माध्यम से गरीबों के बीच 2 रुपये प्रति किलो की दर से 35
किलोग्राम खाद्यान्न वितरण करने की मांग की.
इसके अलावे जूट किसानों की समस्याओँ को लेकर कुछ जिलों में
जिलाधिकारी और अन्य पदाधिकारियों के समक्ष विरोध प्रदर्शन किया.
केन्द्र सरकार द्वारा कॉर्पोरेट सेक्टर के साथ सांठगांठ
करके बनाई गई किसान विरोधी और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ “अबस्थन” यानि कि छह घंटे
की हड़ताल का आयोजन साथी संगठनों के साथ मिलकर किसान सभा ने किया. 26 अप्रैल, 2010 को
कलकत्ते में कई जगह यही कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस तरह का कार्यक्रम 27 अप्रैल
को आयोजित हड़ताल को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया.
त्रिपुरा:
महंगाई, सब्सिडी में कमी, खाद्य सुरक्षा,
कृषि उत्पादों की कीमत, उर्वरक की आपूर्ति और
केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ कृषक सभा और गन
मुक्ति परिषद ने निरंतर अभियान चलाए रखा है.
महाराष्ट्र:
वामपंथी पार्टियों द्वारा महंगाई के खिलाफ और खाद्य सुरक्षा
की मांग करने के लिए मार्च और अप्रैल, 2010 में हुए विरोध प्रदर्शन में किसान सभा
के बैनर तले हजारों किसान जुटे. इस विषय पर सोलापुर में राज्य सम्मेलन का आयोजन
किया गया. 8 मार्च, 2010 को आयोजित हल्ला बोल कार्यक्रम में
25000 से अधिक किसानों ने भाग लिया. राज्य विधानसभा के सामने निकाली गई रैली में
5000 किसानों ने भाग लिया. 8 अप्रैल को 20000 किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया और
27 अप्रैल, 2010 को देश व्यापी हड़ताल का आह्वान किया गया.
गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले और गरीब किसानों ने13 अक्टूबर को महंगाई के खिलाफ
निकाली गई रैली में अपनी जबर्दस्त भागीदारी दी. किसान सभा की महाराष्ट्र इकाई ने
बीपीएल श्रेणी के गरीबों को संगठित किया. 14 जिलों के 35 तहसीलों पर आयोजित
प्रदर्शन में एक लाख से अधिक किसानों ने भाग लिया.
20 अक्टूबर, 2010 को रुई की वाजिब कीमत किसानों को देने
की मांग को लेकर परभानी में आयोजित सम्मेलन में हजारों किसानों ने शिरकत की. वहीं,
गन्ना किसानों को उचित कीमत देने की मांग को लेकर 25 सितंबर,
2010 को बीड जिले के परली वैजनाथ में आयोजित सम्मेलन में करीब 500
किसानों ने भाग लिया. इस सम्मेलन के बाद कई जिलों में किसान सभा के द्वारा धरना
दिया गया.
गन्ना कटाई करने वाले किसानों और चीनी मिल में काम करने
वाले मजदूरों को उचित मेहनताना देने के लिए 21 अक्टूबर, 2012 को
किसान सभा, सीटू और एआईएडब्ल्यूए द्वारा बीड जिले के
अंबाजगोई में विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया.
31 अक्टूबर, 2012 को छह जिलों के हजारों किसानों ने अमरावती में कोटन के उचित दाम को लेकर एक सम्मेलन का आयोजन किया, इसका उद्घाटन एन के शुक्ला ने किया.
31 अक्टूबर, 2012 को छह जिलों के हजारों किसानों ने अमरावती में कोटन के उचित दाम को लेकर एक सम्मेलन का आयोजन किया, इसका उद्घाटन एन के शुक्ला ने किया.
तमिलनाडु:
धान, गन्ना और दूध उत्पादक किसानों को उचित मूल्य देने के लिए कई
जगहों पर विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया गया. इसके बाद राज्य सरकार ने दूध की कीमतों
में बढ़ोत्तरी की. मदुरई, विल्लूपुरम और तिरूवनन्तपूरम में
प्रति टन गन्ना के लिए 3000 रुपये भुगतान करने की मांग को लेकर जबर्दस्त प्रदर्शन
किया गया और रास्ते बंद कर दिये गए.
31 जनवरी, 2012 को चेन्नई में आयोजित धरने में वाम और डीएमडीके के
विधायकों ने हिस्सा लिया. 14 फरवरी, 2012 को 15 जिलों में
गन्ना किसानों को कटाई का वाजिब दाम देने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया गया. गरी
के न्यूनतम बिक्री मूल्य 70 रुपये प्रति किलो करने की मांग को लेकर नारियल किसानों
ने 26 जून, 2012 को व्यापक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया.
किसानों की मांग में प्रति गरी उत्पादन मूल्य 15 रुपया किए जाना भी शामिल था. इस
विरोध प्रदर्शन के बाद सरकार ने बाध्य होकर सौर्य ऊर्जा से संचालित 13 गरी शीतक
केन्द्र खोलने का आदेश दिया.
विल्लापुरम और सिवागंगई गन्ना किसान संगठन ने बकाए की भुगतान
को लेकर 4 सितंबर, 2012 से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया,
जिसके परिणामस्वरूप सरकार ने 6 सितंबर को इनके भुगतान को हरी झंडी
दे दी.
आंध्र प्रदेश:
गन्ना की कीमत को 25000 रुपये प्रति टन करने की मांग को
लेकर चार जिलों में धरना दिया गया. प्रदेश रायथू संघम ने 2010 में धान के न्यूनतम
समर्थन मूल्य को 1030 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया.
वहीं दूध की कीमतों में संशोधन करने की मांग को लेकर चित्तूर और अनन्थपुर जिले में
10000 डेयरी किसानों नें प्रदर्शन किया. इसके बाद सरकार ने दूध की कीमत को 2 रुपये
प्रति लीटर बढ़ा दिया.
खम्माम, आदिलाबाद, नालगोंडा, नेलोर और वारंगल जिले में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन कर बीटी कोटन के बीज
मूल्य में बढ़ोत्तरी के खिलाफ ज्ञापन सौंपा गया.
थून्नापल और येतिकोप्पल चीनी मिलों द्वारा किसानों को
भुगतान किए जाने की मांग को लेकर जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपा गया, जिसके बाद
किसानों को भुगतान किया गया. विजयनगर जिले में, 11 और 27
अगस्त को चीनी मिलों के सामने धरना दिया गया. इसके बाद किसानों का बकाया किस्तों
में भुगतान किया गया.
ओडीशा:
किसानों की कई समस्याओं को लेकर ओडीशा में एक पदयात्रा
अभियान का आयोजन किया गया. इससे किसान सभा का संदेश सुदूर देहातों तक पहुंचा और
किसान संगठित हुए.
जम्मू और कश्मीर:
कीमतों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ 12 मार्च, 2010 को
वामपंथी पार्टियों द्वारा दिल्ली में निकाली गई रैली में 150 किसानों ने भाग लिया.
8 अप्रैल को श्रीनगर के प्रेस कोलोनी के समक्ष कीमतों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ करीब
500 किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया.
गुजरात:
जन वितरण प्रणाली को मजबूत और बीपीएल कार्ड की गड़बड़ियों
को दूर करने की मांग को लेकर मोडसा, भिलडोला और हिम्मत नगर में विरोध प्रदर्शन
का आयोजन किया गया. विजयनगर, दहोड, फतेहपुर
और उपलेटा में हुए सम्मेलन के दौरान वन्य अधिकार कानून को लागू करने की मांग भी की
गई.
माधव गाडगिल और कस्तूरी
रंगन समिति की रिपोर्ट:
प्रोफेसर माधव गाडगिल के नेतृत्व में गठित वेस्टर्न इकोलोजी
एक्सपर्ट पैनल की रिपोर्ट केरल में गरमागरम बहस का विषय बन गई. इस समिति का गठन
केन्द्र सरकार ने जैव-विविधता की सुरक्षा और पश्चिमी तटों के वातावरण का अध्ययन और
प्रस्ताव रखने के लिए किया था. इसका कार्य क्षेत्र देश के छह राज्यों तक था. सभी
पश्चिमी तटों को तीन क्षेत्रों में बांटा गया, जिसे की जैव विविधता की दृष्टि से
संवेदनशील माना गया.
केरल में 14 तालुका अति संवेदनशील क्षेत्र की श्रेणी में
आए. इसी तरह कुछ तालुका भी अन्य क्षेत्र में आए. अगर गाडगिल समिति की रिपोर्ट को
लागू किया जाता तो यह किसानों के साथ घोर अन्याय होता. वहीं, दूसरी तरफ
डा कस्तूरी रंगन के नेतृत्व में भी एक विद्वान समिति ने अपनी जो रिपोर्ट इस मसले
पर दी वह पूरी तरह किसानों के लिए अमाननीय थी. ज्ञात हो कि इन दोनों समितियों का
गठन लोकतांत्रिक तरीके से न करके ब्यूरोक्रेटिक तरीके से किया गया था और इसमें
जनता से जुड़ा हुआ कोई आदमी शामिल नहीं था.
इन समितियों की एकतरफा रिपोर्ट, जिसमें
पश्चिमी घाट को संवेदनशील घोषित करने की अनुशंसा भी की गई थी, से केरल के लाखों लोग काफी खिन्न हो गए. आखिरकार केरल कृषक संघम ने इन
दोनों समितियों के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का निर्णय लिया. इडुक्की,
वयानद सहित कई जिलों में इन समितियों की अनुशंसा के खिलाफ धरना
प्रदर्शन का आयोजन किया गया. केरल कृषक संघम ने एक रिजोल्यूशन निकालकर इन दोनों
समितियों की सभी जनविरोधी और अव्यवहारिक अनुशंसाओं को रद्द करने की मांग की.
हालांकि किसानों पर अप्रत्यक्ष तरीके से किए जा रहे इस हमले
का जोरदार तरीके से बचाव किया गया लेकिन यह अपने चरम पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच सका.
ReplyDeleteTop 10 Universities in India
Happy New Year 2016 Messages
Happy New Year 2016 Images
New Year Wishes
IPL 2016 Schedule
IPL Schedule 2016
IPL 9 Schedule
IPL 2016
IPL 2016 Schedule
IPL Fixtures 2016
IPL 2016 Live Score
IPL 2016 Live
2016 IPL Schedule
ICC T20 World Cup 2016 Schedule
T20 World Cup 2016 Live Streaming
T20 World Cup 2016
Cricket World Cup 2016 Schedule
T20 Cricket World Cup 2016 Schedule