मतदाताओं को हाशिये पर धकेलने का लोकतंत्र
लोकतंत्र, संविधान और संसद की कथित प्रतिष्ठा और सर्वोच्चता को लेकर हाय तौबा मचाने वाले बुद्धिजीवियों ने कन्नौज संसदीय सीट पर राजनीतिक वर्ग के आशीर्वाद से चुनावी मैदान में उतरी डिंपल यादव को लेकर एक चुप्पी साधी हुई है। खबर आई है कि डिंपल यादव के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा कन्नौज से अपने उम्मीदवार मैदान में नहीं उताड़ेगी। इसके अलावे बहुजन समाज पार्टी ने भी डिंपल यादव के रास्ते में रोड़े नहीं पैदा करने का निर्णय लिया है। कन्नौज संसदीय सीट पर 24 जून को उपचुनाव होना है। यह वही कन्नौज है जहां से प्रख्यात समाजवादी राम मनोहर लोहिया कभी चुनाव लड़ते थे। लेकिन तब के कन्नौज और अब के कन्नौज में एक बड़ा राजनीतिक अंतर यह पैदा हो गया है कि तब राम मनोहर लोहिया को यहां की जनता ने चुन कर संसद भेजा था और अब यहां से मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव को मतदाताओं के बजाय राजनीतिक पार्टियां अप्रत्यक्ष रूप से चुन कर संसद भेजेंगी। भारतीय राजनीति के क्षरण की यह कोई अकेली या पहली घटना कतई नहीं है लेकिन यह इस तरह की शायद पहली घटना है।
हालांकि यह कहना जल्दीबाजी होगी कि राज्यसभा की पूर्व सांसद मृणाल सेन की तरह डिंपल यादव कल को यह कहेंगी कि उनका संसद में मन नहीं लगता, लेकिन इतना तय है कि जो मतदाता डिंपल यादव को अपना प्रतिनिधि नहीं घोषित करना चाहता हो उसके लिए राजनीतिक वर्ग ने लगभग सभी रास्ते बंद कर दिए हैं। यह कहने की कोई जरूरत नहीं है कि कन्नौज संसदीय सीट पर 25 जून को होने वाले उपचुनाव का फैसला करने के अधिकार से मतदाताओं को राजनीतिक वर्ग ने अप्रत्यक्ष तरीके से वंचित कर दिया है। सीधे शब्दों में कहें तो मतदान का एकमात्र अधिकार भी अब उन मतदाताओं को नहीं है जो समाजवादी पार्टी के विरोध में हैं। उनके लिए चुनाव के दौरान मतदान करना या न करना बराबर है। क्या ऐसा अचानक हुआ? नहीं। इसके पीछे एक बड़ा इतिहास है जिसकी शुरूआत आजादी के बाद से शुरू हुई। आजादी के लंबे अंतराल के बाद देश में बदलती परिस्थितियों में कई वर्गों का सूत्रपात हुआ। शासक वर्ग और शोषित वर्ग के चरित्र में भी मिलावट हुई और कई नए गठजोड़ बने। माक्र्स के कहे अनुसार शोषित वर्ग का एक धड़ा लगातार शासक वर्ग के नजदीक आता दिखा लेकिन इस बीच जिस नए वर्ग का उद्भव हुआ वह है राजनीतिक क्लास। इसी के समानान्तार आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्यवर्ग के अन्दर उच्च मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग बना। महत्वाकांक्षाओं में पर लगने का लंबा दौर चला और चल रहा है। लेकिन इस बीच समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीति का स्वरूप भी बदला। नैतिक मूल्यों के क्षरण के लंबे दौर के बाद भारतीय राजनीति के अंदर भी राजनीतिक प्रभुवर्ग का उदय हुआ। पूंजीवादी व्यवस्था ने इस वर्ग को पर्याप्त आक्सीजन मुहैया कराया और कारपोरेट गठजोड़ के बाद आज की राजनीति इतनी ताकतवर हो गई कि उसने मतदाताओं को ही अप्रासंगिक बना दिया। डिंपल यादव का उदाहरण यही साबित करता है।
गौरतलब है कि यही डिंपल यादव है जिसे 2009 में फिरोजाबाद के उपचुनाव में सपा से कांग्रेसी हुए राजबब्बर ने हरा दिया था। तब कांग्रेस और सपा में दोस्ती नहीं थी। लेकिन जैसा कि कहा जाता रहा है राजनीति में न तो दोस्ती स्थाई होती है और न ही दुश्मनी, इसी तर्ज पर कांग्रेस अब सपा से दोस्ती कर बैठी है, और दोस्ती की कीमत उसने कन्नौज संसदीय क्षेत्र से अपने उम्मीदवार नहीं उतार कर चुकता किया है।
दरअसल केन्द्र सरकार अपने ही घटक दलों से आजिज आ चुकी है। ऐसे में समाजवादी पार्टी का अगर उसे साथ मिल जाये तो न तो उसे ममता बेनर्जी की इतनी डांट सुननी पड़ेगी और न ही करूणानिधी से किसी बात का डर रहेगा। परिवारवाद भारतीय राजनीति में कोई नहीं बात नहीं है। लेकिन डिंपल यादव का मामला थोड़ा अलग है। यह मामला परिवारवाद से कहीं दूर एक वैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था का है जिसमें जनता की भागीदारी नहीं है। चुनाव बुनियादी तौर पर वैकल्पिक अवसर प्रदान करता है। मसलन चुनाव उस व्यवस्था को कहते हैं जिसमें राज्य को कर देने वाला कोई भी समझदार आम आदमी अपने मनपसंद प्रतिनिधि का चुनाव करता है। उसके सामने कई विकल्प होते हैं। वह उम्मीदवार की गुणवत्ता और उसकी पार्टी देखता है। प्रत्याशी से अपनी नजदीकी देखता और काफी विश्लेषण और समझदारी के बाद कई विकल्पों में किसी एक का चयन करता है। विकल्प न होने की स्थिति में व्यवस्था को चुनाव नहीं कहा जायेगा और ये महज एक औपचारिकता बन कर रह जायेगी। डिंपल यादव को पहली बार फिरोजाबाद लोकसभा सीट पर राज बब्बर ने पटखनी दी थी तो समाजवाद के मौजूदा चरित्र को राम मनोहर लोहिया से जोड़कर देखने वालों में इस मामले को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया भी हुई थी। कहा गया था कि समाजवादी पार्टी का समाजवाद अमर सिंह के रास्ते गर्त में जा रहा है। यह वही समाजवादी पार्टी है जिसने कभी फूलन देवी को लोकसभा का रास्ता दिखलाया था।
भारतीय राजनीति के इतिहास पर नजर डालें तो कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमें आदर्श माने जाने वाले नेताओं के खिलाफ भी पार्टियों ने अपने उम्मीदवार उतारे। मसलन जवाहर लाल नेहरू की साख होने के बावजूद राम मनोहर लोहिया उनके खिलाफ चुनाव लड़े। इसी तर्ज पर इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण, वीकेसिंह कृष्णमेनन के खिलाफ आचार्य जेबी कृपलानी, एसके पाटिल के खिलाफ जार्ज फर्नांडिज और बिहार में डा क्रष्ण सिंह के खिलाफ भोला सिंह चुनाव लड़े। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इससे न केवल लोकतंत्र मजबूत हुआ बल्कि प्रतिस्पर्धा और खुद को जनता से अधिक से अधिक जोरकर रखने की एक प्रवृति भी राजनेताओं में बढ़ी। इसका सीधा लाभ आम जनता को मिला और जनप्रतिनिधियों को लेकर उनके मन में एक आस्था पैदा हुई।
देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार यह जाप करते रहे हैं कि वह कमजोर प्रधानमंत्री नहीं हैं लेकिन वह गठबंधन धर्म के आगे मजबूर हैं। बिहार में राजग की सरकार की अप्रत्यक्ष रूप् से कई बार ईशारा कर चुकी है कि गठबंधन धर्म के कारण ही भूमि सुधार की प्रक्रिया में देर हो रही है। इसके अलावे उत्तरप्रदेश का अद्भुत इतिहास रहा है। कुल मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि जिस गठबंधन धर्म की आर में सरकारें अपनी विफलताओं और विसंगतियों को सही ठहराती है वह दरअसल राजनीतिक वर्ग का चरित्र है। याद कीजिए टीम अन्ना द्वारा जंतर मंतर पर दिखाया गया वीडियो। जो शरद यादव टीम अन्ना के मंच से नेताओं को खरीखोटी सुना रहे थे वही शरद यादव ने संसद के अंदर अपने अंदाज में खुद के कहे पर ही सवाल खड़े कर दिए। अन्य नेताओं का भी कुल मिलाकर यही हाल था। अब यह मानी हुई बात हो चुकी है कि भाजपा और कांग्रेस में नीतियों के मामले में कोई खास अंतर नहीं है। हाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालक्रष्ण आडवाणी ने अपने ब्लाग के माध्यम से यह साबित भी कर दिया है। आडवाणी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जनता भाजपा से भी खुश नहीं है। आडवाणी ने वही कहा जो सोशल मीडिया पर कई पत्रकार सालों से कह रहे हैं। टीम अन्ना के सदस्य मनीष सिसौदिया ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि राजनीतिक वर्ग सुविधाप्रिय सच बोलता हैं। टीम अन्ना की जिद को गलत ठहराने के लिए जिन तर्कों का सहारा लिया जा रहा है उनमें एक सबसे दिलचस्प तर्क यह है कि अगर कश्मीर के कई लोग जंतर मंतर पर इस मांग को लेकर आमरण अनशन शुरू कर दें कि उन्हें कश्मीर एक स्वतंत्र देश चाहिए तो क्या उनकी मांग मान लेनी चाहिए! यह सवाल बिल्कुल जायज है लेकिन इससे पहले एक बार यह जरूर सोचना होगा कि ऐसी नौबत आने का डर सरकार को क्यूं सता रहा है! दरअसल, राजनीति एक ऐसे दौर में पहुंच चुकी है जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया से आम लोगों को ही बेदखल करने का खेल शुरू हो गया है। यह कमोवेश उसी तरह है जिस तरह देश के अलग अलग हिस्सों में भूमि अधिग्रहरण के लिए सिर्फ औपचारिकता के लिए जनसुनवाई का आयोजन किया जाता है। जनसुनवाई से पहले आम लोगों के अंदर इतना भय व्याप्त कर दिया जाता है कि वह जनसुनवाई में हिस्सा न ले सकें या प्रक्रिया में कोई बाधा खड़ी न कर सकें। हमारी चुनाव प्रणाली भी अब इसी ढर्रे पर चल पड़ी है, इस प्रणाली में डिंपल यादव अब न केवल मुलायम सिंह की बहू हैं बल्कि वह अब राजनीतिक वर्ग की भी बहू हैं और इस नाते सभी पार्टियां उन्हें सम्मान दे रही हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कल को किसी और राजनीतिक पार्टी की बेटी या बहू चुनाव मैदान में उतरे और बाकी पार्टियां उन्हें सम्मान में वाक्ओवर दे दे। लोकतंत्र में आम मतदाताओं के अप्रासंगिक होने का भयावह दौर शुरू हो चुका है। आइए शोक मनाएं।
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