उस औरत को कभी नहीं भूल पाया
''मुझे किसी को सम्मान देने की कला नही आती, इसका प्रशिक्षण भी कहीं मिलता तो मै ले लेता लेकिन मै अनाड़ी ही रहा इस मामले में. बहरहाल मैंने ये जरुर सिख लिया कि किसी को सम्मान देना है तो शांति से उनकी बात सुनें और फिर अंत में मुस्कुरा दें बिना कोई सहमती या असहमति दिए.''
बात तब की है जब पापाजी का बाईपास सर्जरी कराने हमलोग कलकत्ता के रविन्द्रनाथ इंटरनेशनल इन्सटीट्यूट ऑफ कार्डिएक साइंस गए थे। पैसे की कमी के कारण हमलोग खर्चे में पूरी सावधानी बरत रहे थे। वैसे भी ऑपरेशन में दो लाख से अधिक का खर्चा आने वाला था अन्य खर्चों के अलावे। जीजाजी ने अस्पताल के सबसे टॉप डॉक्टर कुणाल सरकार से ही ऑपरेशन कराने का निश्चय किया था। चूंकि पापाजी डायबिटीज के मरीज थे इसलिए हमलोग किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते थे।
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कतरा कतरा अपना हिसाब मांग रहा था, सूद समेत |
हॉटल के खाने का पैसा बचाने के लिए हमलोगों ने डिसाइड किया कि हम खुद ही खाना बनाएंगे। हम जिस हॉटल में ठहरे थे वह अस्पताल से कुछ कदम पर ही था। उस हॉटल के ज्यादातर मेहमान किसी परिजन का ईलाज कराने ही वहां ठहरे थे। हॉटल वाले ने कुछ पैसा लेकर गैस और बरतन दे दिया। हमलोग खुद ही खाना बनाने लगे। बेशक वे दिन काफी मनहूस थे। पापाजी को एक खोए बेटे का गम खाए जा रहा था और भैया असम में थे। भैया की परीक्षा थी। मेरा मोबाइल खराब था और पैसा के नाम पर मेरे पास डायरी के पन्नों में दबे कुचले दो चार विकलांग नोट थे। नोट कितने थे मै यह जानना ही नहीं चाहता था। बस कभी कभी यह सोचकर खुश हो लेता था कि नीचे जाकर अमरूद खाने के पैसे मेरे पास हैं। बगल में ही सुभाषचंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा था। मैं अक्सर छत पर जाकर हवाईजहाज को निहारता था। किचेन की खिड़की से बाहर कुछ कुछ देखते रहने से मन बहलता रहता था। आईसीयू और वेंडिलेटर पर मरीजों को देख देखकर तबियत अंदर से बिगड़ गई थी। अस्पताल में प्रवेश करते ही लगता था कि कहीं से खून की गंध आ रही है। बेहद डरावना था वह सब कुछ।
एक शाम मैं रोटी बना रहा था और न चाहते हुए भी आंखें बार बार भींग रही थी। गर्मी का मौसम था। शायद जुलाई रहा होगा। मुझे ठीक तरह से याद नहीं आ रहा लेकिन जुलाई ही था शायद। मैं बीच बीच में खिड़की से बाहर झांक लेता था। नीचे जूता बनाने की छोटी कंपनी थी। जूता बनते हुए साफ दिखता था। मै पता नहीं क्या क्या सोचते रहता हूं। जब मैं ट्रेन से कहीं जाता था तो सूनसान में किसी को अकेले देखकर सोचता था कि बेचारे का घर कहां होगा! ट्रेन से दूर दूर तक कुछ नजर नहीं आता था। फिर मै खुद ही उसके पैर को देखता था और उसका चप्पल देखकर इस निर्णय पर पहुंचता था कि इसका कहीं तो घर होगा और अच्छे जगह ही होगा तभी तो इसके पैर में चप्पल है। मुझे जली रोटी की महक नहीं आ रही थी। लेकिन अचानक उस महिला की आवाज कानों से टकराई कि आपकी रोटी जल रही है। मैंने आनन फानन में रोटी पलटा और फिर अपनी धुन में लग गया। बेला, परथन लगाया, पलटा और वापस कठौती में। मैने ध्यान नहीं दिया कि वो महिला मेरे पीछे ही थी। मुझे लगा था वो चली गई होगी। मै असहज होने लगा। तब मै इतना नहीं खुल पाया था जितना दिल्ली आने के बाद खुल गया। उस महिला ने अप्रत्याशित तरीके से मुझे कहा कि भैया मैं आपकी रोटी बना दूं?
मेरी असहजता अब ऐसी हो गई कि मैने सोचना बंद कर दिया। झटके के साथ तुरंत मेरा ध्यान टूटा और मैने विनम्रता से कहा कि मै बना लूंगा, रोज बनाता हूं। वो महिला किसी अच्छे घर से थी और उनकी हिन्दी से लग रहा था कि काफी पढ़ी लिखी भी हैं। उसने मेरी असहजता की परवाह किए बिना मेरे हाथ से बेलन ले लिया और मुझे बगल होने को कहा। मैं आत्मसमर्पण की स्थिति में आ गया। मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या करूं। वो रोटी बना रही थीं और मैं पथराई आंखों से उनके इस अंदाज को देख रहा था। ऐसे संस्कार, चेहरे पर ये तेज और मीठी सी हंसी। अनायास ही मेरे मन में उनके प्रति सम्मान जाग गया लेकिन इसका एहसास उन्हें दिलाने के लिए मैं क्या करूं समझ में नहीं आया। मेरी असहजता को शायद उन्होंने भंाप लिया। बातचीत के क्रम में पता चला कि उनकी बेटी के दिल में छेद है जिसका ईलाज कराने वह यहां आई हैं। मुझे ऐसी घटनाओं का कोई अनुभव नहीं था इसलिए मैं पशोपेश की स्थिति में वैसे ही पड़ा रहा। पता नहीं वो महिला आज कहां होगी। उनकी बेटी कैसी होगी पता नहीं लेकिन इतना जरूर है कि जिंदगी थमी नहीं है और चलती जा रही है सरपट। बेपरवाह।
''कभी कभी आप आत्मसमर्पण के मूड में होते हैं और आपको पता भी नही होता. जब तक आपको पता चलता है आप आत्मसमर्पण कर चुके होते हैं.''
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