राहु की महादशा- टिकटों में पैसा पानी और घोर मानसिक दबाव
Y K SHEETAL
JOURNALIST
Saturday, October 25, 2025
Tuesday, October 21, 2025
कभी-कभी
मेरे दिल में खयाल आता है...
बीते कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ कि लगा कोई आगे चलकर एक-एक चीज बिगाड़ता जा रहा है। जैसे कि सुबह नींद नहीं खुलना और खुलने के बाद कोई ऐसा फोन आना कि मन का क्षुब्ध हो जाना। सामने मोबाईल का आना और फिर हाथ में मोबाईल लेते ही कुछ ऐसा देखना कि मन गहरे अवसाद से भर जाना। पानी आपूर्ति नहीं आना और खाना बनाते समय चीजों की कमी पड़ना, असमंजस में पड़े रहना और समय का बहुत रफ्तार से बढ़ना और फिर भाग-भाग कर ट्रेन पकड़ने के लिए जाना और फिर पता चलना कि ट्रेन कुछ मिनट से छूट गई और अगली वाली ट्रेन का देर से आना, खचाखच भरा होना और इसी बीच एक के बाद एक कई सारे फोन आना। दफ्तर में तनाव और वापस घर पहुंचकर पाना कि घर में तो नकारात्मकता का वास है।
न जाने कितने ही दिन घोर अवसाद में ऐसे बीते। समय से ऐसी निर्दयता दिखाई कि उन चीजों को दर्ज भी नहीं कर पाया किसी पन्ने या वेबपार्टल पर कि बाद में कभी खुद को यकीम दिलाया जाए कि ऐसा भी कभी घटित हुआ था!
गणपति और लक्ष्मी पूजन को लेकर मन उलझनों से भरा रहा। इतने कम समय में कैसे प्रसन्न किया जाए देवी-देवताओं को! न छुट्टी, न संसाधन, न ज्ञान और न कोई हेल्पिंग हैंड! अशांत मन की तो खैर अपनी ही दास्तां होती है। खैर!
20 अक्टूबर का दिन अजीब ही बीतने वाला था। दफ्तर में गहरी नींद के बाद जो मन में हल्कापन आया था उसे डीडी इंडिया असाइनमेंट के फोन ने फीका कर दिया। सवा छह बजे दफ्तर से निकलने का जो सोचा था वह मुश्किल लगने लगा था क्योंकि लगातार साढे सात, आठ और नौ में लाईव था दीपावली पर। बात इतनी हालांकि बन गई कि लाईव मोबाईल से दिया जा सकता है। मृणाल से मदद मांगी और उससे कहा कि कोई अच्छी जगह खोज कर रखे जहां लाईटिंग हो। कामोठे में तो वैसी कोई रौनक थी नहीं, पनवेल लेक के पास उसने एक जगह ढूंढ निकाली। वहां पहुंचना हुआ और लाईव भी हुआ। कुल मिलाकर जितना सोचा था उससे बहुत अच्छा।
खैर, जो हुआ उससे अच्छा होना बाकी था। रात को करीब सवा दस बजे तक डरते हुए होटल में खाया। डर इसलिए क्योंकि अगले दिन सुबह यानि कि आज मुंबई पुलिस झंडा दिवस पर दादर पहुंचना था। सुबह के साढ़े सात बजे। यानि कि मुझे सवेरे छह बजे ट्रेन में होना था, पांच बजे बाथरूम में और साढे चार बजे अपने दोनों पैरों पर। खाकर कमरे पर आया तो भाग्य से फोन पर बात होने लगी। सोते हुए पौने एक बज गये और चिंता में मन डूब गया कि कल क्या होगा। दो-तीन बार मन में आया कि सर को मैसेज डाल दूं कि मैं सुबह देर से आऊंगा और कैमरामैन को ब्रीफ कर देता हूं। बार-बार रूक गया और आखिरकार मैसेज नहीं किया। दोनों मोबाईल पास की कुर्सी पर रखकर उसमें सवा चार का अलार्म लगा दिया। सुबह को लेकर मन में तरह-तरह की आशंकाएं जन्म ले रही थी।
ये क्या! सुबह करीब चार बजकर तेरह मिनट पर नींद खुल गई। लेकिन अलार्म तो बजा ही नहीं। और नींद ऐसी नहीं खुली कि लगे और सोना बाकी है। ऐसा लग रहा था कि पर्याप्त नींद पूरी हो चुकी। पानी रात में ही गर्म करके थर्मस में रख चुका था। एक कप नींबू वाली चाय भी बना ली। सब हो गया। अरे घड़ी तो आज धीरे-धीरे चल रही है। कभी-कभी तो लगता है कि कोई राक्षस वहां बैठकर कांटों को तेजी से घुमा रहा है। आज क्या हो गया! शांति से सब चला। स्टेशन पर पहुंचा तो गाड़ी आई। जादू तो तब हुआ जब कुर्ला में सात बजकर दो मिनट पर आने वाली गाड़ी एकदम समय पर आई। मुझे याद नहीं कि कुर्ला में कभी भी गाड़ी समय पर आई होगी। आज कुछ तो था, जो घटित हो रहा था। इधर परेल उतरा और प्रभादेवी पर विजय गाड़ी लेकर तैयार था। सात बजकर कुछ मिनट पर मैं ऑफिस। एसी प्लांट वाले ने लाईवयू दिया। वाह! यहां तो जरा भी समय नहीं लगा। पुलिस ग्राऊंड में गया तो न ऑफिस का आईकार्ड था और न ही एक्रीडेशन, फिर भी उस महिला पुलिस अधिकारी ने देखा और जाने दिया। उधर मैं पहुंचा थोड़ी देर में मुख्यमंत्री आ गये। कार्यक्रम तुरंत शुरू हुआ और तुरंत खत्म। इतना अच्छा से ये सब कैसे हुआ! सबसे पहले तो मुझे यकीन ही नहीं आ रहा कि मैं सुबह अलार्म बजने से पहले ही उठ गया और फ्रेश होने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई।
इधर दफ्तर आया तो वहां भी अच्छा ही अच्छा होता गया। सर का उस वक्त कमरे में आना जब डी वाई चंद्रचूड का इंटरव्यू देख रहा था। थोड़ी ही देर पहले मैं गाने सुन रहा था, उस वक्त तो सर नहीं आए। ऐसे समय में आए जब मैं इंटरव्यू यानि कि न्यूज से जुड़े काम ही कर रहा था।
गणेश और लक्ष्मी की कृपा तो है।
Sunday, October 19, 2025
जालों का दीवार
जो उस पार चले गये...!
बहुत समय से कबूतर रोकने के लिए लगाए गये उस नेट के बाहर निकली डंडियां देख रहा था। ऐसा कई बार हुआ। लगता था कुछ तो बता रही है ये डंडियां लेकिन क्या बता रही है ये सोचने और समझने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिल पा रहा था। कभी समय था भी तो उतनी एकाग्रता नहीं हो पाई कि समझ सकूं कि ये डंडिया कहती क्या हैं!
फिर एक दिन लगा कि जो डंडियां बाहर आ गई हैं वे धीरे-धीरे शाखा जैसे होती जा रही हैं। लचीलापन खत्म हो रहा है उनका और उनमें आ रही छोटी-छोटी पत्तियां बड़े पत्ते का रूप ले रही है। न उनमें वे मुलायमियत लगती थी और न ही वैसा सुनहलापन। जैसे-जैसे वयस्क होती जा रहीं थीं अपनी कोमलता खोती जा रही थीं। पहले जो हल्की हवाओं में भी हिलने लगती थी अब वह तेज हवाओं में भी बस अंगड़ाई जैसी कुछ लेती प्रतीत होती थी। एरोगेंस जैसा लगता था, मानो कि हवा में हिल तो रही हैं लेकिन यह भी एहसास दिला रही हैं कि वे अपनी मर्जी की मालिक हैं।
फिर बाहर निकली एक डंडी में लगे पत्ते को मैंने बहुत देर तक देखा। सुबह के करीब नौ बज रहे होंगे और किचन का काम करना बाकी था। मैं उस पत्ते को देखते हुए थोड़ा और पास चला गया तो देखा कि वह पत्ता कठोर हो गया है। मैंने उसे शुरू से देखा था जब वह नेट से बाहर आई डंडी में उगना शुरू हुआ था।
इस बार भी दीपावली में छुट्टी के लिए आवेदन करने का हिम्मत नहीं जुटा पाया। छठ के लिए जो छुट्टियों का आवेदन दिया उसको लेकर भी बहुत सारी बातें सुननी पड़ी। खुशी-खुशी छुट्टियां शायद एक-दो बार मिली है, बाकी सारी छुट्टियों के लिए बहुत तरह की शर्मिंदगी उठानी पड़ी है।
बेगूसराय में क्या बुरा था! सबकुछ। हां, सबकुछ। सवाल ये होना चाहिए कि बेगूसराय में क्या अच्छा था! हो सकता है जवाब होता कि बानो शाह का खट्टा वाला जलेबी, शर्मा जी का चाट, ठठेरी गली के पास वाला छोले-भटूरे, नगर-पालिका वाला भूंजा या फिर एनएच के बगल में मिलती ताजी-ताजी सब्जियां। और क्या था जो वहां अच्छा था! अरे हां, वे लोहियानगर ढाले के इस ओर खड़े होकर सामने से सरपट भागती तेज गाड़ियां भी तो थी। राजधानी, गरीब नवाज जैसे दो-तीन गाड़ियां जिनका बेगूसराय में स्टोपेज नहीं था, जब गुजरती थीं तो कितना मजा आता था देखकर। सांय-सांय...! बस? क्या और कुछ भी नहीं था बेगूसराय में जो अच्छा था!
डालियां एक बार बालकनी में लगे जाल से बाहर आ जाएं तो भला वापस अंदर कहां जा पाती हैं! बेगूसराय से बाहर आने के बाद कितने सारे पंख लगे, बड़े संस्थान के सर्टिफिकेट, बड़े लोगों के साथ जान-पहचान, नया नजरिया, नई पहचान, नई आदतें-लतें, नए लोग, नए सपने और नए-नए अनुभवों का जखीरा। ये सब पत्तियों की तरह लग गये और धीरे-धीरे बड़े होते चले गए। फिर एक बार लगा कि अब वापस पहले वाली जगह पर जाना न हो पाएगा!
टहनियां जबतक अंदर थीं, थीं! जब बाहर आईं तो टहनियां कहां टहनियां रहीं, वे तो हों गईं शाखाएं और फिर जुड़ी तो भले ही रहीं वह जड़ों से लेकिन किसी के काम न आ पाईं। अब शाखाएं बन चुकी ये टहनियां शायद ही कभी उस बालकनी के अंदर आएं जहां इनका जड़ है और जहां इनका कभी वजूद हुआ करता था। अब यह टहनियां पानी तो बालकनी के अंदर गमलों के गंथे अपने जड़ों से ही लेती हैं लेकिन हवाएं और रोशनी बाहर की हैं कुल मिलाकर अब ये न तो पूरे तरीके से बाहरी चीजों पर निर्भर हैं और न ही अंदर की चीजों पर। कोई इन्हें खींच कर अंदर लाए तो इसमें लगे सारे पत्ते-पत्तियां टूट कर बाहर ही रह जाएंगी, कुछ भी अंदर नहीं आएगा। कुछ भी नहीं!
![]() |
| बाहर निकल गई टहनियों को अंदर कैसे लाया जाए! |
Saturday, October 11, 2025
राकेश के पापा का निधन
संस्मरण
परसों अमित का दो बार फोन आया। मुझे लगा पैसों के लेन-देन की बात होगी लेकिन उसने बताया कि राकेश के पापा नहीं रहे। अवाक् रह जाने जैसा अब कुछ होता नहीं लेकिन हां थोड़ी देर के लिए लगा कि बुरा हुआ। त्यौहारों के बीच इस तरह एक शांत स्वभाव के आदमी का चले जाना घर ही नहीं आसपास के वातावरण को भी उत्साहहीन कर देता है।
गली में उनकी एक अपनी धारा थी। वह मिलनसार नहीं थे और किसी से भी मिलते या बातचीत करते उन्हें शायद ही कभी किसी ने देखा हो। वह अपनी ही धुन में रहते थे। समाज में उनकी कोई पहचान भी नहीं थी और न कभी किसी को उनके घर आते-जाते देखा गया था। मूलरूप में खरीक का भूमिहार परिवार था और गली-मुहल्लों में सक्रिय नहीं था। छोटे घर से बड़े घर तक सब आंखों के सामने हुआ था। उनसे मेरी कभी कोई लंबी या गहरी बातचीत तो नहीं हुई लेकिन हां होली में उनके यहां जाना होता था और उनके पैर पर अबीर दिया था मैंने। एक बार कुछ सालों पहले उन्होंने बात भी की थी फोन पर। वह आईजी का नंबर मांग रहे थे। पप्पू को पुलिस ने किसी मामले में पकड़ा था। इससे इतना तो पता चला कि उनके अंदर आत्मविश्वास था लेकिन उनके व्यक्तित्व का आकलन कोई नहीं कर सकता क्योंकि वह बहुत ही ज्यादा सीमित थे। रिजर्व।
बाद में मैंने राकेश से भी बात करने की कोशिश की लेकिन फोन नहीं उठा। उसकी अपनी व्यस्तता होगी।
बहरहाल, उनके जाने से दुख इसलिए भी हुआ क्योंकि मुन्नूजी प्रकरण के बाद जो घर की हालत हुई और समाज में जो जिल्लत पूरे घर और समाज में हमलोगों का हुआ, उस दौरान वह हमेशा वस्तुनिष्ठ रहे जिसे ऐसा माना जाए कि वे हमारे पक्ष में ही रहे।
.jpeg)

