Saturday, November 16, 2024

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Saturday, October 19, 2024

कश्मकश के बीच


                                              यादगार दिन और यादगार रात

पिता जी की यह बात कभी-कभी अचानक कान में गूंज जाती है कि घर आदमी नहीं चलाता भगवान चलाता है।

इधर-उधर के सभी भुगतान करने के बाद ऐसा लगा कि क्रेडिट कार्ड से लेकर डेबिट कार्ड तक को पूरा निचोड़ा जा चुका है और अब उसमें निचोड़ने लायक कुछ भी नहीं रहा है। 

खर्च के साथ कई कारक होते हैं। अगर खर्च को श्रेणियों में बांटा जाए तो एक श्रेणी उन खर्चों को होती है जो अचानक आती है और तमाम तय कार्यक्रमों को रौंदते हुए अपना सिक्का जमा लेती है। मतलब कुछ ऐसा कि सादे पन्नो पर लिखे गये तमाम तय खर्चों का बंदोबस्त कर लेने के बाद चैन से रह रहा आदमी अचानक ऐसा असंतुलित होता है कि उसे संभलते-संभलते उसका दम फूलने लगता है।

जो 13 अक्टूबर को हुआ वह चमत्कार ही था। खर्चे अनुमानित नहीं थे। चार-पांच दिन पहले तक यह तय नहीं था कि वर्धा जाया जाएगा और वहां जाकर जंगल सफारी होगी यह तो बिल्कुल भी नहीं। भाग्य 7 अक्टूबर को आई और तब से पूरी कोशिश यही हो रही थी कि कही घूमने जाने का कार्यक्रम बने। एक-दो दिन की छुट्टी मिल भी जाती तो कहीं जाने के लिए हाथ में रुपये कहां थे! बाला जी, मल्लिकार्जुन, ऊंटी, खंडाला में पैराग्लाइडिंग जैसे कितने ही कार्यक्रम मन में बन कर मन में ही दब गये थे। छुट्टी और रुपये किसी भी फैमली ट्रिप की अनिवार्य आवश्यकता होते हैं।

जब 9 अक्टूबर को मालूम चला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शस्त्रपूजन कार्यक्रम में नागपुर जाना है तो आंखों के सामने वर्धा को बोर डैम तैर गया। यही कोई बीस दिनों पहले वहां गया था जब वर्धा में प्रधानमंत्री का दौरा था। अकेले जाने का मन नहीं था लेकिन वहां के स्ट्रिंगर के साथ जाकर वहां की हवा ली तो सोचा था कि काश भाग्य भी साथ में होती। जिन-जिन जगहों पर मैं वहां घुमा उसे भी घुमाना चाहता था। यहां तक कि एमटीडीसी के रिजॉर्ट के बारे में भी पता कर लिया जहां से शानदार नजारा देखा जा सकता था। इसलिए जब ऑफिस से नागपुर के दौरे की जानकारी मिली तो लगा भाग्य की छु्ट्टियों को शायद सार्थक बनाया जा सकता है अब।

रुपयों की दिक्कत को मैनेज करने के तरीकों पर काम शुरू हुआ और तय हुआ कि भाग्य और बच्चे को ट्रेन से भेज दिया जाए। चूंकि ट्रेन से समय ज्यादा लगता और मेरी नागपुर में जरूरत थी तो मैंने शाम की फ्लाईट ले ली। फ्लाईट का किराया अगर तीन हजार तक होता तो सब लोग फ्लाईट से जाते लेकिन किराया बजट से बहुत दूर था। दोपहर में भाग्य और बच्चों को दादर से सेवाग्राम एक्सप्रेस पकड़वाकर मैं वहीं से हवाई अड्डा के लिए निकल गया। अगले दिन हम दोनों नागपुर रेशिमबाग मैदान में मिले। 

पूरे दिन शानदार रहा। थोड़ी कसक रही लेकिन फिर भी ठीकठाक रहा। कसक इस बात की कि जब मूलचंद मैदान में रावणदहन हो रहा था मैं दीक्षाभूमि आ गया क्योंकि वहां धम्मचक्र प्रवर्तन का कार्यक्रम चल रहा था। मन बहुत था कि सपरिवार एक साथ रावणदहन देखें लेकिन उनलोगों को वहां छोड़कर मुझे जाना पड़ा था। असली रोमांच तो तब आया जब रात को मैंने भाग्य और बच्चों को बिठाकर लॉंग ड्राइव की। पहली बार। नागपुर से वर्धा।

वर्धा के रिजॉर्ट में जब मैं रात ग्यारह बजे पहुंचा तो मैं खुद को यकीन दिला रहा था कि कोई तो है - भगवान या कुछ भी और - लेकिन कोई तो है जिसने 16 सितंबर को मेरे मन की बात सुनी और भाग्य के साथ इस जगह आने की ख्वाईश पूरी कर दिया। 13 अक्टूबर एक यादगार दिन बन गया और 12 अक्टूबर की रात यादगार रात।

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और अंत में...