दौर-दर-दौर
दोस्त बनाने की उम्र बीत गई। रिश्तेदार अब नए कहां बनेंगे और दफ्तर तो यही आखिरी होगा ऐसा लगता है। फिर नया माहौल कैसे मिलेगा?
शंका का निदान कौन करेगा? कैसे करेगा और क्या कर पाएगा?
दिल्ली की वह दोपहर जो कमरे में पंखे की हवा खाते हुए बीतती थी कभी-कभी याद करने का मन करता है। गंदे कमरे में सफाई के निशान होते थे। टूटी खिड़कियों से आती रोशनी, बाहर का घुटनभरा माहौल, अंदर से बाहर देखने के लिए फेसबुक जैसे माध्यम और तमाम उम्मीदों और आशंकाओं के बीत वहां बीते दो-तीन साल कभी-कभी याद करने का मन करता है।
क्या था जो मैं तब चाहता था लेकिन अब नहीं चाहता हूं। नौकरी, शादी, पहचान! इसके बाद चौथी कोई चीज नहीं आती दिमाग में जो तब चला करता था उस बंद कमरे में। आज एक दशक से अधिक हो गए उस दौर को बीते हुए लेकिन बेचैनी आज भी उतनी ही है या ऐसे कहें कि उससे ज्यादा ही है बावजूद इसके कि ये तीनों चीजें अच्छे तरीके से उपलब्ध है। फिर बेचैनी की क्या वजह हो सकती है!
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