Saturday, April 13, 2024

2016 की वो

                                                       14 अप्रैल की सुबह

14 अप्रैल को चैत्यभूमि जाना कहने को तो एक असाइनमेंट है लेकिन 2016 की उस घटना के बाद वहां जाना एक दूसरे ही युग की याद दिला देता है। एक ऐसा युग जहां दूर तक अंधेरा पसरा था और चीख-पुकार के बीच किसी मददगार की तलाश थी। जो भी मददगार आया वह दबे पांव आया और उसी साल के अंत तक काफी कुछ ठीक कर दिया। खैर!

ऐसा क्या हुआ था तब? हमारे बीच 2015 से 2016 के बीच जो भी पनप रहा था उसपर 2016 के चढ़ते-चढ़ते इतना तेजाब डल गया था कि अब उस हरियाली का लंबे समय तक वैसे रहना असंभव हो गया था। तमाम छोटे-मोटे सपनों के दरकने या टूटने के आवाज आए दिन आते रहते थे और एक मायावी घेरा सा बन चुका था चारों ओर। बातें होते-होते फोन का कटना, फोन ऑफ रहना, टाईप किए जा रहे हर शब्द से चीख जैसा कुछ निकलना और ऐसे न  जाने कितने अनुभव! 

13 की रात कुछ भयानक घटा था। बातचीत के दौरान कुछ ऐसा था कि बेचैनी हद से ज्यादा बढ़ गई थी। एक फोन कटा। दूसरा फोन कटा। फोन का बिजी आना शुरू हुआ। फोन फिर कटा। कटता रहा। इस तरह देर रात अंत तक फोन कटता रहा और नंबर व्यस्त आता रहा। तब मुझे पहली बार ऐसा लगा था कि चाहे जो भी हो इस अंधेरे से हर हाल में निकलना होगा। कीमत जितनी भी हो जैसी भी हो, दी जाएगी लेकिन इस अंधेरे को चकमा देकर निकलना ही होगा अन्यथा कभी रोशनी नसीब न होगी शायद! 

अगले दिन चैत्यभूमि में मैं अपनी टीम के साथ था। सवेरे के 7-8 बजे का उजाला शरीर को ऊर्जा से भरता जा रहा था। रोशनी पास के समुद्र को भी भेदती जा रही थी। मन में रात वाली घटना ऐसे दर्ज हो गई थी कि उसके ऊपर कोई रंग चढ़ ही नहीं पा रहा था। लगातार फोन का बिजी होना और फोन का घंटों तक कटता जाना कई सारे मायने निकालने को विवश कर रहा था, वह भी तब जब नकारात्मकता अपने चरम पर थी।

बहरहाल, सबकुछ छोड़कर एक कोने में थोड़ी देर बैठने के बाद फिर से कॉल लगाया। इस बार न तो फोन बिजी आया और न ही फोन कटा। फोन की पूरी रिंग खत्म होने से पहले फोन उठ गया। मन की रफ्तार कितनी तेज होती है यह उस दौर में महसूस किया जा रहा था। जो मन फोन करते वक्त था, उससे काफी अलग रिंग होते हुए और उससे बहुत-बहुत अलग फोन उठने के बाद। वही बात, वही अंदाज और वहीं पर जाकर पूर्ण विराम। शायद वह आखिरी बातचीत थी!

14 अप्रैल, 2016 के बाद आज आठवां 14 अप्रैल था। चैत्यभूमि पहुंचकर थोड़ी देर बैठा। कुछ तस्वीरें ली। वापस दफ्तर आ गया। क्या बीता इतने सालों में! मैं आज भी अकेला हूं यहां, तब भी अकेला था। इस बीच न जाने समुद्र में कितना पानी सूखा और कितना नया पानी आया!

बीतते-बीतते बीत जाएगा यह दौर भी,

जैसा बीतता आया है जमाने का हर दौर!


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